महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 221-245

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प्रथम अध्‍याय: आदिपर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत: अादिपर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 242-276 का हिन्दी अनुवाद

जिनके दिव्य कर्म, पराक्रम, त्याग, माहात्म्य, आस्तिकता, सत्य, पवित्रता, दया और सरलता आदि सदगुणों का वर्णन बड़े-बड़े विद्वान एवं श्रेष्ठतम कवि प्राचीन ग्रन्थों में तथा लोक में भी करते रहते हैं, वे समस्त सम्पत्ति और सदगुणों से सम्पन्न महापुरुष भी मृत्यु को प्राप्त हो गये। आपके पुत्र दुर्योधन आदि तो दुरात्मा, क्रोध से जले भुने, लोभी एवं अत्यन्त दुराचारी थे। उनकी मृत्यु पर आपको शोक नहीं करना चाहिये। आपने गुरुजनों से सत शास्त्रों का श्रवण किया है। आपकी धारणाशक्ति तीव्र है, आप बुद्धिमान हैं और ज्ञानवान पुरुष आपका आदर करते हैं। भरतवंशशिरोमणे! जिनकी बुद्धि शास्त्र के अनुसार सोचती है, वे कभी शोक-मोह से मोहित नहीं होते। महाराज! आपने पाण्डवों के साथ निर्दयता और अपने पुत्रों के प्रति पक्षपात का जो बर्ताव किया है, वह आपको विदित ही है। इसलिये अब पुत्रों के जीवन के लिये आपको अत्यन्त व्याकुल नहीं होना चाहिये। होनहार ही ऐसी थी, इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। भला, इस सृष्टि में ऐसा कौन- सा पुरुष है, जो अपनी बुद्धि की विशेषता से होनहार मिटा सके। अपने कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है - यह विधाता का विधान है। इसको कोई टाल नहीं सकता। जन्म- मृत्यु और सुख - दुख सबका मूल कारण काल ही है। काल ही प्राणियों की सृष्टि करता है और काल ही समस्त प्रजा का संहार करता है। फिर प्रजा का संहार करने वाले उस काल को महाकाल स्वरूप परमात्मा ही शान्त करता है।सम्पूर्ण लोकों में यह काल ही शुभ-अशुभ सब पदार्थो का कर्ता है। काल ही सम्पूर्ण प्रजा का संहार करता है और वही पुनः सबकी सृष्टि भी करता है। जब सुषुप्ति अवस्था में सब इन्द्रियाँ और मनावृत्तियाँ लीन हो जाती हैं, तब भी यह काल जागता रहता है। काल की गति का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता वह सम्पूर्ण प्राणियों में समान रूप से बेरोक-टोक अपनी क्रिया करता रहता है। इस सृष्टि में जितने पदार्थ हो चुके, भविष्य में होंगे और इस समय वर्तमान में हैं, वे सब काल की रचना हैं; ऐसा समझकर आपको अपने विवेक का परित्याग नहीं करना चाहिये। उग्रश्रवा जी कहते हैं- सूतवंशी संजय ने यह सब कहकर पुत्र शोक से व्याकुल नरपति धृतराष्ट्र को समझाया-बुझाया और उन्हें स्वस्थ किया। इसी इतिहास के आधार पर श्रीकृष्ण द्वैपायन ने इस परम पुण्यमयी उपनिषद रूप महाभारत का (शोकातुर प्राणियों का शोक नाश करने के लिये) निरूपण किया। विद्वजन लोक में और श्रेष्ठतम कवि पुराणों में सदा से इसी का वर्णन करते आये हैं। महाभारत का अध्ययन अन्तःकरण को शुद्ध करने वाला है। जो कोई श्रद्धा के साथ इसके किसी एक श्लोक के एक पाद का भी अध्ययन करता है, उसके सब पाप सम्पूर्ण रूप से मिट जाते है। इस ग्रन्थ रत्न में शुभ कर्म करने वाले देवता, देवर्षि, निर्मल ब्रह्मर्षि, यक्ष और महानागों का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ के मुख्य विषय हैं स्वयं सनातन पर ब्रह्मस्वरूप वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण। उन्हीं का इसमें संकीर्तन किया गया है। वे ही सत्य, ऋत, पवित्र एवं पुण्य हैं। वे ही शाश्वत परंब्रह्मर हैं और वे ही अविनाशी सनातन ज्येाति हैं। मनीषी पुरुष उन्हीं की दिव्य लीलाओं संकीर्तन किया करते हैं। उन्हीं से असत, सत तथा दसत-उभय रूप सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है। उन्हीं से संतति (प्रजा), प्रवृत्ति (कर्तव्य कर्म), जन्म- मृत्यु तथा पुर्नजन्म होते हैं। इस महाभारत में जीवात्मा का स्वरूप भी बतलाया गया है एवं जो सत्य रज-तम इन तीनों गुणों के कार्यरूप पाँच महाभूत हैं, उनका तथा जो अव्यक्त प्रकृति आदि के मूल कारण परम ब्रह्म परमात्मा हैं, उनका भी भलि - भाँति निरूपण किया गया है। जो इस अनुक्रमणिका अध्याय का कुछ अंश भी प्रातः, सांय अथवा मध्याह्न में जपता है, वह दिन अथवा रात्रि के समय संचित सम्पूर्ण पाप राशि से तत्काल मुक्त हो जाता है। यह अध्याय महाभारत का मूल शरीर है। यह सत्य एवं अमृत है। जैसे दही में नवनीत, मनुष्यों में ब्राह्मण, वेदों में उपनिषद,औषधियों में अमृत, सरोवरों में समुद्र और चौपायों में गाय सबसे श्रेष्ठ है, वैसे ही उन्हीं के समान इतिहासों में यह महाभारत भी है। जो श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मणों को अन्त में इस अध्याय का एक चौथाई भाग अथवा श्लोक का एक चरण भी सुनाता है, उसके पितरों को अक्षय अन्न पान की प्राप्ति होती है। इतिहास और पुराणों की सहायता से ही वेदों के अर्थ का विस्तार एवं समर्थन करना चाहिये। एवं जो पुराणों से अनभिज्ञा हैं, उनसे वेद डरते रहते हैं कि कहीं यह मुझ पर इस वेद का दूसरों को श्रवण कराते हैं, उन्हें मनोवाञछित अर्थ की प्राप्ति होती है। अतएव महत्ता, भार अथवा गम्भीरता की विशेषता से ही इसको महाभारत कहते हैं। जो इस ग्रन्थ के निर्वाचन को जान लेता है, वह सब पापों से छूट जाता है। तपस्या निर्मल है, शास्त्रों का अध्ययन भी निर्मल है, वर्णाश्रम के अनुसार स्वाभाविक वेदोक्त विधि भी निर्मल है और कष्टपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन भी निर्मल है, किंतु वे ही सब विपरीत भाव से किये जाने पर पापमय हैं अर्थात दूसरे के अनिष्ट के लिये किया हुआ तप, शास्त्राध्ययन और वेदोक्त हो जाता है। ( तात्पर्य यह कि इस ग्रन्थ रत्न में भाव शुद्धि पर विशेष जोर दिया गया है; इसलिये महाभारत ग्रन्थ का अध्ययन करते समय भी भाव शुद्ध रखना चाहिये)।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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