महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 8 श्लोक 19-33
अष्टम (8) अध्याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)
आपके लिये जैसे पाण्डव है, वैसा ही मै हूँ प्रभो ! मै आपका भक्त होने के कारण आपके द्वारा समाद्दत और पालित होने योग्य हूँ अतः मुझे अपनाइये।
शल्य ने कहां-महाराज ! तुम्हारा कहना ठीक है । भूपाल ! तुम जैसा कहते हो, वैसा ही वर तुम्हे प्रसन्नतापूर्वक देता हूँ । यह ऐसा ही होगा-मै तुम्हारी सेना का अधिनायक बनूँगा।
वैशम्पायनजी कहते है--राजन ! उस समय शल्य ने दुर्योधन से कहा--‘ तुम्हारी यह प्रार्थना तो स्वीकार कर ली। अब कौन सा कार्य करूँ १ यह सुनकर गान्धारीनन्दन दुर्योधन बार-बार यही कहा कि मेरा तो सब काम आपने पूरा किया।
शल्य बोले--नरश्रेष्ठ दुर्योधन ! अब तुम अपने नगर-को जाओ । मै शत्रुदमन युधिष्ठिर से मिलने जाऊँगा। नरेश्रवर ! में युधिष्ठिर से मिलकर शीध्र ही लौट आऊँगा । पाण्डुपुत्र नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर से मिलना भी अत्यन्त आवश्क है दुर्योधनने कहां-राजन् ! पृथ्वीपते ! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर से मिलकर आप शीघ्र चले आइये राजेन्द्र ! हम आपके ही अधीन है । आपने हमें जो वरदान दिया है, उसे याद रखियेगा।
शल्य बोले--! तुम्हारा कल्याण हो ! तुम अपने नगर को जाओ । मै शीघ्र आऊँगा ।ऐसा कहकर राजा शल्य तथा दुर्योधन दोनों एक दूसरे से गले मिलकर विदा हुए। इस प्रकार शल्य से आज्ञा लेर दुर्योधन पुनः अपने नगर को लौट आया और शल्य कुन्ती कुमार से दुर्योधन की वह करतूत सुनाने के लिये युधिष्ठिर के पास गये। विराट नगर के उपलव्य नामक प्रदेश में जाकर वे पाण्डवों ी छावनी में पहुँचे और वहीं सब पाण्डवों से मिले। पाण्डव पुत्रो से मिलकर महाबाहु शल्य ने उनके द्वारा विधिपूर्वक दिये हुए पाद्य, अध्र्य और गौको ग्रहण किय। तत्पश्चात शत्रुशूदन मद्रराज शल्य ने कुशल-प्रश्न के अन्रन्तर बडी प्रसन्नता के साथ युधिष्ठिर को हृदय से लगाया । इसी प्रकार उन्होंने हर्ष में भरे हुए दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन को तथा अपनी बहिन के दोनोंजुडवे पुत्रो नकुल-सहदेव को भी गलेलगाया। तदन्तर द्रोपदी सुभद्रा तथा अभिमन्यु ने महाबाहु शल्य के पास आकर, उन्हें प्रणाम किया । उस समय उदारचेता धर्मात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर ने दोनों हाथ जोडकर शल्य से कहा ॥युधिष्ठिर बोले-राजन् आपका स्वागत है इस आसन पर विराजिये।
वैशम्पायनजी कहते है-जनमेजय ! तब राजा शल्य सुवर्ण श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हुए । उस समय पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने सबको सुख देने वाले शल्य से कुशल-समाचार पूछा उस समस्त धर्मात्मा पाण्डव से धिर कर आशन पर बैठे हुए राजा शल्य कुन्ती कुमार युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले नृपतिश्रेष्ठ कुरूनन्दन ! तुम कुशल से तो हो न १ विजयी वीरो में श्रेष्ठ नरेश ! यह बडे सौभाग्य की बात है कि तुम बनवास के कष्ट से छुटकारा पा गये। ‘राजन ! तुमने अपने भाइयों तथा इस द्रुपद कुमारी कृष्णा के साथ निर्जन बन में निवास करके अत्यन्त दुष्कर कार्य किया है ॥३॰॥‘भारत भयकंर अज्ञातवास करके ते तुमलोगों ने और भी दुष्कर कार्य सम्पन्न किया है । जो अपने राज्य से वंचित हो गया हो, उसे तो कष्ट ही उठाना पड़ता है, सुख कहाँ से मिल सकता है[१]। शत्रुओं के संताप देने वाले नरेश ! दुर्योधन दिये हुए इस महान दुःख के अन्त में अब तुम शत्रुओं को मारकर सुख के भागी होओगे। महाराज ! नरेश्वर ! लोकतन्त्र सम्यक् ज्ञान है । तात ! इसीलिये तुम में लोभ जनित कोई भी बर्ताव नहीं है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ १ टाइपिंग में रिफरेंस नहीं मिला
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