महाभारत वन पर्व अध्याय 200 श्लोक 62-77
द्विशततम (200) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )
ऐसा अतिथि जब किसी के घर पर जाता है, तब उसके पीछे इन्द्रादि सम्पूर्ण देवता भी वहां तक जाते हैं। यदि वहां उस अतिथिका आदर होता है, तो वे देवता भी प्रसन्न होते हैं और यदि आदर नहीं होता, तो वे देवगण भी निराश लौट जाते हैं । अत: राजेन्द्र । तुम भी अतिथि का विधिपूर्वक सत्कार करते रहो। यह बात मैं तुम से कई बार कह चुका हूं, अब और क्या सुनना चाहते हो। । युधिष्ठिर ने कहा- धर्मज्ञ विभो। आपके द्वारा हुई पुण्यमय धर्म की चर्चा मैं बारंबार सुनना चाहता हूं । मार्कण्डेयजी बोले-राजन् । अब मैं धर्मसम्बन्धी दूसरी बातें बता रहा हूं, जो सदा सब पापों का नाश करने वाली हैं। तुम सावधान होकर सुनो । भरतश्रेष्ठ। ज्येष्ठ पुष्कर तीर्थ में कपिला गौ दान करने से जो फल मिलता है, वही ब्राह्मणों का चरण धोने से प्राप्त होता है । ब्राह्मणों के चरण पखारने के जल से जब तक पृथ्वी भीगी रहती है, तब तक पितर लोग कमल के पत्ते से जल पीते हैं । ब्राह्मण का स्वागत करने से अग्नि , उसे आसन देने से इन्द्र, उसके पैर धोने से पितर और उसको भोजन के योग्य अन्न प्रदान करने से ब्रह्माजी तृप्त होते हैं । गर्भिणी गौ जिस समय बच्चा दे रही हो और उस बछड़े का केवल मुख तथा दो पैर ही बाहर निकले दिखायी देते हों, उसी समय पवित्र भाव से प्रयत्नपूर्वक उस गौ का दान कर देना चाहिये । जब तक बछड़ा योनि से निकलते समय आकाश मे ही लटकता दिखायी दे, जब तक गाय अपने बछड़े को पूर्णत: योनि से अलग न कर दे, तब तक उस गौ को पृथ्वी रुप ही समझना चाहिये । युधिष्ठिर । उसका दान करने से उस गौ तथा बछड़े के शरीर में जितने रोएं होते हैं, उतने हजार युगों तक दाता स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होता है । भारत । जो सोने की नाक और सुन्दर चांदी के खुरों से विभूषित, सब प्रकार के रत्नों से अलंकृत, काली गौ को तिलों से प्रच्छादित करके उसका दान करता है और जो उस दान को लेकर पुन: किसी दूसरे श्रेष्ठ पुरुष को अर्पित कर देता है, वह सर्वोत्तम फल का भागी होता है । उस गौ के दान से समुद्र, गुफा, पर्वत, वन और काननों सहित चारों दिशाओं की भूमि के दान का पुण्य प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है । जो द्विज अपने हाथों को घुटनों के भीतर किये मौन भाव से पात्र में एक हाथ लगाये रखकर भोजन करता है, वह अपने को और दूसरों को तारने में समर्थ होता है । जो मदिरा नहीं पीते, जिन पर किसी प्रकार का दोष नहीं लगाया गया है तथा जो अन्य द्विज विधि पूर्वक वेदों की संहिता का पाठ करते है, वे सदा दूसरों को तराने में समर्थ होते हैं । हव्य (यज्ञ) और कव्य (श्राद्ध) की जितनी भी वस्तुएं हैं, श्रोत्रिय उन सबको पाने का अधिकारी है। श्रेष्ठ श्रोत्रिय को दिया हुआ दान उतना ही सफल होता है, जैसे प्रज्वलित अग्रि में दी हुई आहुति ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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