द्विशततम (200) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )
महाभारत: वन पर्व: द्विशततम अध्याय: श्लोक 78-95 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मणों का क्रोध ही अस्त्र-शस्त्र है। ब्राह्मण लोहे के हथियारों से लड़ा करते हैं। जैसे हाथ में वज्र लिये हुए इन्द्र असुरों का संहार कर डालते हें, उसी प्रकार ब्राह्मण क्रोध से ही अपराधी को नष्ट कर देते हैं ।
निष्पाप युधिष्ठिर । यह मैंने धर्मयुक्त कथा कही है। इसे सुनकर नैमिषारण्यनिवासी मुनि बड़े प्रसन्न हुए थे । राजन् इस कथा को सुनकर मनुष्य शोक, भय, क्रोध और पाप से रहित हो फिर इस संसार में जन्म नहीं लेते हैं । युधिष्ठिर ने पूछा-धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाप्राज्ञ महर्षे। वह शौच क्या है जिससे ब्राह्मण सदा शुद्ध बना रहता है । मैं उसे सुनना चाहता हूं । मार्कण्डेयजी ने कहा- राजन् । शौच तीन प्रकार का होता है- वाक्शौच (वाणी की पवित्रता ), कर्मशौच (क्रिया की पवित्रता) तथा जल शौच (जल से शरीर की शुद्धि) । जो इस तीन प्रकार के शौच से सम्पन्न है, वह स्वर्गलोक का अधिकारी है, इसमें संशय नहीं । जो ब्राह्मण प्रात: और सांय-इन दोनों समय की संध्या और सबको पवित्र करने वाली वेदमाता गायत्री देवी के मन्त्र का जप करता है; वह ब्राह्मण उन्हीं गायत्री देवी की कृपा से परम पवित्र और निष्पाप हो जाता है। वह समुद्र पर्यन्त सारी पृथ्वी का भी दान ग्रहण कर ले, तो भी किसी संकट में नहीं पड़ता । इतना ही नहीं, आकाश के सूर्य आदि ग्रहों में से जो कोई भी उसके लिये भंयकर होते हैं, वे उपर्युक्त गायत्री-जप के प्रभाव से उसके लिये सदा सौम्य, सुखद एवं परम मगडलकारी हो जाते हैं । भयंकर रुप और विशाल शरीर वाले, समस्त क्रूरकर्मा, मांसभक्षी राक्षस भी गायत्रीजपपरायण उस श्रेष्ठ द्विज पर आक्रमण नहीं कर सकते । वे संध्योपासक ब्राह्मण प्रज्वलित अग्रि के समान तेजस्वी होते हैं। पढ़ाने, यज्ञ कराने अथवा दूसरे से दान लेने के कारण भी उन्हें दोष नहीं छू सकता (क्योंकि वे उनकी जीविका के कर्म हैं) । ब्राह्मण अच्छी तरह वेद पढ़े हों या न पढ़े हो, उत्तम संसकारों से युक्त हों या प्राकृत मनुष्यों की भांति संस्कार शून्य हों, उनका अपमान नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे राख में छिपी हुई आग के समान हैं । जैसे प्रज्वलित अग्रि शमशान में भी दूषित नहीं होती, उसी प्रकार ब्राह्मण विद्वान् हो या अविद्वान्, उसे महान् देवता ही मानना चाहिये । चहारदीवारियों, नगर द्वारों और भिन्न-भिन्न महलों से भी नगरों की तब तक शोभा नहीं होती, जब तक वहां श्रेष्ठ ब्राहण न रहें । राजन् । वेदज्ञ, सदाचारी, ज्ञानी और तपस्वी ब्राह्मण जहां निवास करते हों, उसी का नाम नगर है । कुन्तीनन्दन् । व्रज (गौओं के रहने का स्थान) हो या वन, जहां बहुश्रुत विद्वान् रहते हों, उसे ‘नगर’ कहा गया है, वह तीर्थ भी माना गया है । प्रजा की रक्षा करने वाले राजा और तपस्वी ब्राह्मणके पास जाकर उनकी सेवा-पूजा करके मनुष्य तत्काल सब पापों से मुक्त हो जाता है । पुण्यतीर्थो में स्नान, पवित्र मन्त्रों का वर्णन कीर्तन और श्रेष्ठ पुरुषों से वार्तालाप-इन सबको विद्वान पुरुषों ने उत्तम बताया है ।
सत्संग से पवित्र किये हुए वाणी के सुन्दर सम्भाषण रुप जल से अभिषित्त श्रेष्ठ पुरुष अपने को सदा पवित्र हुआ मानते हैं ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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