महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 18 श्लोक 19-32
अष्टादश (18) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
सिद्ध ब्राह्मण बोले- काश्यप! इस लोक में किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल भोगे बिना नाश नहीं होता। वे कर्म वैसा-वैसा कर्मानुसार एक के बाद एक शरीर धारण कराकर अपना फल देते रहते हैं।
जैसे फल देने वाला वृक्ष फलने का समय आने पर बहुत से फल प्रदान करता है, उसी प्रकार शुद्ध ह्रदय से किये हुए पुण्य का फल अधिक होता है।
इसी तरह कलुषित चित्त से किय हुए पाप के फल में भी वृद्धि होती है, क्योंकि जीवात्मा मन को आगे करके ही प्रत्येक कार्य में प्रवृत होता है।
काम क्रोध से घिरा हुआ मनुष्य जिस प्रकार कर्मजाल में आबद्ध गर्भ में प्रवेश करता है, उसका भी उत्तर सुनो।
जीव पहले पुरुष के वीर्य में प्रविष्ट होता है, फिर स्त्री के गर्भाशय में जाकर उसके रज में मिल जाता है। तत्पश्चात उसे कर्मानुसार शुभ या अशुभ शरीर की प्राप्ति होती है।
जीव अपनी इच्छा के अनुसार उस शरीर में प्रवेश करके सूक्ष्म और अव्यक्त होने के कारण कहीं आसक्त नहीं होता है, क्योंकि वास्वत में वह सनातन पर ब्रह्म स्वरूप है।
वह जीवात्मा सम्पूर्ण भूतों की स्थिति का हेतु है, क्योंकि उसी के द्वारा सब प्राणी जीवित रहते हैं। वह जीव गर्भ के समस्त अंग में प्रविष्ट हो उसके प्रत्येक स्थान वक्ष: स्थल में स्थित हो समस्त अंगों का संचालन करता है। तभी वह गर्भ चेतना से सम्पन्न होता है।
जैसे तपाये हुए लोहे का द्रव जैसे साँचे में ढाला जाता है उसी का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार गर्भ में जीव का प्रवेश होता है, ऐसा समझो (अर्थात जीव जिस प्रकार की योनि में प्रविष्ट होता है, उसी रूप में उसका शरीर बन जाता है)।
जैसे अग लोहपिण्ड में प्रविष्ट होकर उसे बहुत तपा देती है, उसी प्रकार गर्भ में जीव का प्रवेश होता है और वह उसमें चेतनता ला देता है। इस बात को तुम अच्छी तरह समझ लो।
जिस प्रकार जलता हुआ दीपक समूचे घर में प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार जीव की चैतन्य शक्ति शरीर के सब अवयवों को प्रकाशित करती है।
मनुष्य शुभ अथवा जो-जो कर्म करता है, पूर्व जन्म के शरीर से किये गये उन सब कर्मों का फल उसे अवश्य भोगना पड़ात है।
उपभोग से प्राचीन कर्म का तो क्षय होता है और फिर दूसरे नये-नये कर्मों का संचय बढ़ जाता है। जब तक मोक्ष की प्राप्ति में सहायक धर्म का उसे ज्ञान नहीं होता, तब तक यह कर्मों की परम्परा नहीं टूटती है।
साधुशिरोमणेे! इस प्रकार भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमण करने वाला जीव जिन के अनुष्ठान से सुखी होता है, उन कर्मों का वर्णन सुनो।
दान, व्रत, ब्रह्मचर्य, शास्त्रोक्त रीति से वेदाध्ययन, इन्द्रियग्रह, शान्ति, समस्त प्राणियों पर दया, चित्त का संयम, कोमलता, दूसरों के धन लेने की इच्छा का त्याग, संसार के प्राणियों का मन से भी अहित न करना, माता-पिता की सेवा, देवता, अतिथि और गुरुओं की पूजा, दया, पवित्रता, इन्द्रियों को सदा काबू में रखना तथा शुभ कर्मों का प्रचार करना- यह सब श्रेष्ठ पुरुषों का बर्ताव कहलाता है। इनके अनुष्ठान से धर्म होता है, जो सदा प्रजावर्ग की रक्षा करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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