चतुरधिकद्विशततक (204) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )
महाभारत: वन पर्व: चतुरधिकद्विशततक अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
धुनधु की तपस्या और वरप्राप्ति , कुवलाश्रव द्वारा धुन्धुका वध और देवताओं का कुवलाश्रव को वर देना मार्कडेयजी कहते हैं- महाराज। उन्हीं दोनों मधु और कैटभ का पुत्र धुन्धु है, जो बड़ा तेजस्वी और महान् बल पराक्रम से सम्पन्न है। उसने बड़ी भारी तपस्या की । वह दीर्घकाल तक एक पैर से खड़ा रहा। उसका शरीर इतना दुर्बल हो गया कि नस नाडि़यों का जाल दिखायी देने लगा। ब्रह्माजी ने उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर उसे वर दिया धुन्धु ने भगवान् ब्रह्म से इस प्रकार पर मांगा । ‘भगवन्। मैं देवता, दानव, यक्ष, सर्प, गन्धर्व और राक्षस किसी के हाथ से न मारा जाऊं। मैंने आप से यही वर मांगा है’ । तब ब्रह्मजी उससे कहा-‘ऐसा ही होगा । जाओ।
उनके ऐसा कहने पर धुन्धु ने मस्तक झुकाकर उनके चरणों का स्पर्श किया और वहां से चला गया । जब धुन्धु वर पाकर महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न हो गया, तब उसे अपने पिता मधु और कैटभ के वध का स्मरण हो आया और वह शीघ्रता पूर्वक भगवान् विष्णु के पास गया । धुन्धु अमर्ष में भरा हुआ था। उसने गन्धर्व सहित सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर भगवान् विष्णु तथा अन्य देवताओं को बार-बार महान् कष्ट देना प्रारम्भ किया ।।6।। भरत श्रेष्ठ। वह दुष्टात्मा बालुकामय प्रसिद्ध उज्जालक समुद्र में आकर रहने और उस देश के निवासियों को सताने लगा। राजन् । वह अपनी पूरी शक्ति लगाकर धरती के भीतर बालू में छिपकर वहां उत्तडक के आश्रम में भी उपद्रव करने लगा । मधु और कैटभ का वह भयंकर पराक्रमी पुत्र धुन्धु तपोबल का आश्रय ले सम्पूर्ण लोकों का विनाश करने के लिये वहां मरुप्रदेश में शयन करता था। उत्तकड़ के आश्रम के पास सांस ले-लेकर वह आग की चिनगारियां फैलाता था । भरत श्रेष्ठ । इसी प्रकार राजा कुवलाश्रव ने अपनी सेना, सवारी तथा पुत्रों के साथ प्रस्थान किया। उनके साथ विप्रवर उत्तकड़ भी थे । शत्रु मर्दन महाराज कुवलाश्रव अपने इक्कीस हजार बलवान् पुत्रों को साथ लेकर (सेनासहित) चले थे । तदनन्तर उत्तकड़ के अनुरोध से सम्पूर्ण जगत् का हित करने के लिये सर्व समर्थ भगवान् विष्णु ने अपने तेजोमय स्वरुप कुवलाश्रव में प्रवेश किया । उन दुर्घर्ष वीर कुवलाश्रव के यात्रा करने पर देवलोक में अत्यन्त हर्षपूर्ण कोहालहल होने लगा । देवता कहने लगे ‘ये श्रीमान् नरेश अवध्य हैं, आज धुन्धु को मारकर ये ‘धुन्धु मार’ नाम धारण करेंगे । देवता लोग चारों ओर से उन पर दिव्य फुलों की वर्षा करने लगे। देवताओं की दुन्दुभियां स्वयं बिना किसी प्रेरणा के बज उठीं । उन बुद्धिमान् राजा कुवलाश्रव के यात्राकाल में शीतल वायु चलने लगी। देवराज इन्द्र धरती की धूल शान्त करने के लिये वर्षा करने लगे । युधिष्ठिर । जहां महान् असुर ‘धुन्धु’ रहता था, वहीं आकाश में देवताओं के विमान आदि दिखायी देने लगे ।
कुवलाश्रव और धुन्धुका युद्ध देखने के लिये उत्सुक हो देवताओं और और गन्धर्वो के साथ महर्षि भी आकर डट गये और वहां सारी बातों पर दृष्टिपात करने लगे । कुरुनन्दन । उस समय भगवान् नारायण के तेज से परिपुष्ट हो राजा कुवलाश्रव अपने उन पुत्रों के साथ वहां जा पहुंचे और शीघ्र ही चारों ओर से उस बालुकामय समुद्र को खुदवाने लगे ।।19।।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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