महाभारत वन पर्व अध्याय 205 श्लोक 1-17
पच्चाधिकद्विशततम (205) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )
पतिव्रता स्त्री तथा पिता-माता की सेवा का माहात्म्य वैशम्पायनजी कहते हैं- भरत श्रेष्ठ जनमेजय । तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने महातेजस्वी मार्कण्डेय मुनि से धर्म विषयक प्रश्र किया, जो समझने में अत्यन्त कठिन था । वे बोले – ‘भगवन् । मैं आप के मुख से (पतिव्रता) स्त्रियों के सूक्ष्म, धर्मसम्मत एवं उत्तम माहात्म्य का यथार्थ वर्णन सुनना चाहता हूं । ‘ भगवन’ । श्रेष्ठ ब्रह्मर्ष । इस जगत् में सूर्य, चन्द्रमा, वायु, पथ्वी , अग्रि, पिता, माता और गुरु –ये प्रत्यक्ष देवता दिखायी देते हैं। भृगुनन्दन । इसके सिवा अन्य जो देवतारुपी से स्थापित देवविग्रह हैं, वे भी प्रत्यक्ष देवताओं की ही कोटि में हैं, । ‘ समस्त गुरुजन और पतिव्रता नारियां भी समादरक योग्य हैं। पतिव्रता स्त्रियां अपने पति की जैसी सेवा –शुश्रूषा करती हैं; वह दूसरे किसी के लिये मुझे अत्यन्त कठिन प्रतीत होती है । ‘प्रभो । आप अब हमें पतिव्रता स्त्रियों की महिमा सुनावें। निष्पाप महर्षे । जो अपनी इन्द्रियों को संयम में रखती हुई मन को वश में करके अपने पति का देवता के समान ही चिन्तन करती रहती हैं, वे नारियां धन्य हैं। प्रभो । भगवन् । उनका वह त्याग और सेवा भाव मुझे तो अत्यन्त कठिन जान पड़ता है । ‘ब्रह्मन । पुत्रों द्वारा माता पिता की सेवा तथा स्त्रियों द्वारा की हुई पति की सेवा बहुत कठिन है। स्त्रियों के इस कठोर धर्म से बढ़कर और कोई दुष्कर कार्य मुझे नहीं दिखायी देता है । ‘ब्रह्मन् । समाज में सदा आदर पाने वाली सदाचारिणी स्त्रियां जो महान् कार्य करती हैं, वह अत्यन्त कठिन है । जो लोग पिता-माता की सेवा करते हैं, उनका कर्म भी बहुत कठिन है । पतिव्रता तथा सत्यवादिनी स्त्रियां अत्यन्त कठोर धर्म का पालन करती हैं । ‘स्त्रियां अपने दस महीने तक जो गर्भ धारण करती हैं और यथा समय उसको जन्म देती हैं, इससे अभ्दुत कार्य और कौन होगा । ‘भगवन् । अपने को भारी प्राण संकट में डालकर और अतुल वेदनाको सहकर नारियां बड़े कष्ट से संतान उत्पन्न करती है। विप्रवर । फिर बड़े कष्ट से संतान उत्पन्न करती हैं। विप्रवर। फिर बड़े स्नेह से उनका पालन भी करती हैं । ‘जो सती-साध्वी स्त्रियां क्रूर स्वभाव के पतियों की सेवा में रहकर उनके तिरस्कार का पात्र बनकर भी सदा अपने सती-धर्म का पालन करती रहती हैं, वह तो मुझे और भी अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है । ‘ब्रह्मन। आप मुझे क्षत्रियों के धर्म और आचार का तत्व भी विस्तारपूर्वक बताइये । विस्तार पूर्वक बताइये । विप्रवर । जो क्रूर स्वभाव के मनुष्य हैं, उनके लिये महात्माओं का धर्म अत्यन्त दुर्लभ है । भगवन् । भृगकुलशिरोमणे। आप उत्तम व्रत के पालक और प्रश्रका समाधान करने वाले विद्वानों में श्रेष्ठ हैं। मैंने जो प्रशन आप के सम्मुख उपस्थित किया है, उसी का उत्तर मैं आप से सुनना चाहता हूं’ । मार्कण्डेयजी बोले- भरत श्रेष्ठ । तुम्हारे इस प्रशन की विवेचना करना यद्यपि बहुत कठिन है, तो भी मैं अब इसका यथावत् समाधान करुंगा। तुम मेरे मुख से सुनो । कुछ लोग माताओं को गौरव की दृष्टि से बड़ी मानते हैं। दूसरे लोग पिता को महत्व देते हैं। परंतु माता जो अपनी संतानों को पाल-पोसकर बड़ा बनाती है, वह उसका कठिन कार्य है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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