महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-17

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चतुर्विंश (24) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


देवर्षि नारद और देवमत का संवाद एवं उदान के उत्कृष्ट रूप का वर्णन

ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! इस विषय में देवर्षि नारद और देवमत के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। देवमत ने पूछा- देवर्षे! जब जीव जनम लेता है, उस समय सबसे पहले उसके शरीर में किसकी प्रवृत्ति होती है? प्राण, अपान, समान, व्यान अथवा उदान की? नारदजी ने कहा- मुने जिस निमित्त कारण से इस जीव की उत्पत्ति होती है, उससे भिन्न दूसरा पदार्थ भी पहले कारण रूप से उपस्थित होता है। वह है प्राणों द्वन्द्व। जो ऊपर (देवलोक), तिर्यक् (मनुष्यलोक) और अधोलोक (पशु आदि) में व्याप्त है, ऐसा समझना चाहिये। देवमत ने पूछा- नारदजी! किस निमित्त कारण से इस जीव की सृष्टि होती है? दूसरा कौन पहले कारण रूप से उपस्थित होता है तथा प्राणों द्वन्द्व क्या है, जो ऊपर, मध्य में और नीचे व्याप्त है? नारदजी ने कहा- मुने! संकल्प से हर्ष उत्पन्न होता है, मनोनुकूल शब्द से, रस से और रूप से भी हर्ष की उत्पत्ति होती है। रज में मिले हुए वीर्य से पहले प्राण आकर उस में कार्य आरम्भ करता है। उस प्राण से वीर्य में विकार उत्पन्न होने पर फिर अपान की प्रवृत्ति होती है। शुक्र से और रस से भी हर्ष की उत्पत्ति होती है, यह हर्ष ही उदान का रूप है। उक्त कारण और कार्य रूप जो मिथुन है, उन दोनों के बीच में हर्ष व्याप्त होकर स्थित है। प्रवृत्ति के मूलभूत काम से वीर्य उत्पन्न होता है। उससे रज की उत्पत्ति होती है। ये दोनों वीर्य और रज समान और व्यान से उत्पन्न होते हैं। इसलिये सामान्य कहलाते हैं। प्राण औ अपान- ये दोनों भी द्वन्द्व हैं। ये नीचे और ऊपर को जाते हैं। व्यान और समान- ये दोनों मध्यगामी द्वन्द्व कहे जाते हैं। अग्रि अर्थात परमात्मा ही सम्पूर्ण देवता हैं। यह वेद उन परमेश्वर की आज्ञा रूप है। उस वेद से ही ब्राह्मण में बुद्धियुक्त ज्ञान उत्पन्न होता है। उस अग्रि का धुआँ तमोमय और भस्म रजोमय है। जिसके निमित्त हविष्य की आहुति दी जाती है, उस अग्रि से (प्रकाश स्वरूप परमेश्वर से) यह सारा जगत उत्पन्न होता है। यज्ञवेत्ता पुरुष यह जानते हैं कि सत्त्वगुणसे समान और व्यान की उत्पत्ति होती है। प्राण और अपान आज्यभाग नामक दो आहुतियों के समान हैं। उनके मध्य भाग में अग्रि की स्थिति है। यही उदान का उत्कृष्ट रूप है, जिसे ब्राह्मण लोग जानते हैं। जो निर्द्वन्द्व कहा गया है, उसे भी बताता हूँ, तुम मेरे मुख से सुनो। ये दिन और रात द्वन्द्व हैं, इनके मध्य भाग में अग्रि हैं। ब्राह्मण लोग इसी को उदान का उत्कृष्ट रूप मानते हैं। सत् और असत्- ये दोनों द्वन्द्व हैं तथा इनके मध्य भाग में अग्रि हैं। ब्राह्मण लोग इसे उदान का परम उत्कृष्ट रूप मानते हैं। ऊर्ध्व अर्थात् ब्रह्म जिस संकल्प नामक हेतु से समान और व्यान रूप होता है, उसी से कर्म का विस्तार होता है। अत: संकल्प को रोकना चाहिये। जाग्रत और स्वप्न के अतिरिक्त जो तीसरी अवस्था है, उससे उपलक्षित ब्रह्म का समान के द्वारा ही निश्चय होता है। एक मात्र व्यान शान्ति के लिये हैं। शान्ति सनातन ब्रह्म है। ब्राह्मण लोग इसी को उदान का परम उत्कृष्ट रूप मानते हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में ब्राह्मण गीताविषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।





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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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