महाभारत वन पर्व अध्याय 281 श्लोक 19-31
एकाशीत्यधिकद्वशततम (281) अध्याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )
‘राक्षसराज ! तुम्हारे मुख से ऐसी दुःखदायिनी बातें अनेक बार निकली हैं और मुझ अभागिनी को वे सारी बातें सुननी पड़ी हैं। भद्रसुख ! तुम्हारा भला हो। तुम अपना मन मेरी ओर से हटा लो। ‘मैं परायी स्त्री हूँ, पतिव्रता हूँ। तुम कभी किसी तरह मुझे नहीं पा सकते। एक दीन मानवकन्या होने के कारण मैं तुम जैसे पिशाच की भार्या होने योग्य नहीं हूँ। ‘मुझ विवश अबला को बलपूर्वक अपमानित करके तुम्हें क्या सुख मिलेगा ? तुम्हारे पिता ब्राह्मण हैं। ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण वे ब्रह्मा के ही समान हैं। ‘तुम भी लोकपालों के समान हो, फिर धर्म का पालन क्यों नहीे करते ? महेश्वर सखा राजराज धनाध्यक्ष प्रभु कुबेर को अपना भाई बता रहे हो, तो भी यहाँ ऐसा बर्ताव करते हुए तुम्हें लज्जा क्यों नहीं आती ?’। ऐसा कहकर तन्वंगी सीता अपनी गर्दन और मुख को कपड़े से ढककर फूट-फूटकर रोने लगी। उस समय छाती धड़कने के कारण उनके स्तन काँप रहे थे। अच्छी तरह रोती हुई भामिनी सीता के मसतक पर बँधी हुई स्निग्ध, असित एवं विशाल वेणी काली नागिन के समान दिखाई देती थी। सीता के मुख से यह अत्यन्त निष्ठुर वचन सुनकर और उनके द्वारा कोरा उत्तर पाकर भी दुर्बुद्धि रावण पुनः इस प्रकार कहने लगा- ‘सीते ! भले ही कामदेव मेरे यारीर को पीड़ा देता रहे, परंतु में तुम जैसी मनोहर मुस्कान वाली सुन्दरी युवती का राजी किये बिना तुम्हारे साथ समागम नहीं करूँगा। ‘तुम आज भी उस मनुष्य राम के प्रति ही, जो हम लोगों का आहार है, अनुराग दिखाती जा रही हो; ऐसी दशा में मैं क्या कर सकता हूँ ?’। अनिन्द्य अंगों वाली सीता से ऐसा कहकर राक्षसराज रावण वहीं अन्तर्धान हो अभीष्ट दिशा की ओर चल दिया। इधर शोक से दुबली हुई सीता राक्षसियों से घिरकर त्रिजटा से सुसेवित हो अशोक वाटिका में ही रहने लगी।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत रामोख्यान पर्व में सीता रावण संवाद विषयक दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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