महाभारत वन पर्व अध्याय 283 श्लोक 37-54

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त्र्यशीत्यधिकद्वशततम (283) अध्‍याय: वन पर्व (रामोख्यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: त्र्यशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 37-54 का हिन्दी अनुवाद

‘यदि इस प्रकार याचना करने पर तुम मुझे मार्ग न दोगे, तो मैं दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित बाणों द्वारा तुम्हें सुखा दूँगा।। श्रीरामचन्द्रजी का यह वचन सुनकर वरूणालय समुद्र व्यथित हो उठा और खड़े हुए हाथ जोड़कर बोला- ‘श्रीराम ! मैं तुम्हारा सामना करना नहीं चाहता और न ही तुम्हारे मार्ग में विघ्न डालने की ही इच्छा रखता हूँ। मेरी यह बात सुनो और सुनकर जो कर्तव्य हो, उसे करो। ‘यदि मैं इस समय तुम्हारी आज्ञा से तुम्हें और लंगा जाती हुई तुम्हारी सेना को मार्ग दे दूँगा, तो दूसरे लोग भी इसी प्रकार धनुष बल से मुझ पर हुक्म चलाया करेंगे। ‘तुम्हारी सेना में नल नामक वानर है जो शिल्पियों के लिये भी आदरणीय है। बलवान् नल देवशिल्पी विश्वकर्मा का पुत्र है। ‘वह अपने हाथ से उठाकर जो भी काठ, तिनका या पत्थर मेरे भीतर डाल देगा, वह सब मैं जल के ऊपर धारण किये रहूँगा। वही तुम्हारे लिये पुल हो जायगा’। ऐसा कहकर समुद्र अन्तर्धान हो गया। तत्पश्चात् श्रीराम ने उठकर नल से कहा- ‘तुम समुद्र पर एक पुल तैयार करो। मैं जानता हूँ, तुममे यह कार्य करने की शक्ति है’। उसी उपाय से रघुनाथजी ने समुद्र पर सौ योजन लंबा और दस योजन चैड़ा पुल तैयार कराया। वह आज भी भूमण्डल में ‘नलसेतु’ के नाम से विख्यात है। श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा मानकर समुद्र ने उस पर्वताकार पुल को अपने ऊपर धारण किया। श्रीरामचन्द्रजी अभी समुद्र के किनारे ही थे कि राक्षसराज रावण के भाई धर्मात्मा विभीषण अपने चार मनित्रयों के साथ उनसे मिलने के लिये आये। महामना श्रीराम ने स्वागतपूर्वक उन्हें अपनाया। उस समय सुग्रीव के मन में यह शंका हुई कि कहीं यह शत्रुओं का कोई गुप्तचर न हो’। परंतु श्रीरामचन्द्रजी ने उनकी सत्य चेष्टाओं, उत्तम आचरणों और मुख-नेत्र आदि के संकेतों से सूचित होने वाले मनोभावों की सम्यक् समीक्षा करके जब अचदी तरह संतोश प्रापत कर लिया, तब विभीषण का बहुत आदर किया। साथ ही उन्हें समस्त राक्षसों के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और लक्ष्मण का सुहृद तथा अपना सलाहकार बना लिया।। नरेश्वर ! विभीषण की सलाह से श्रीरामचन्द्रजी ने उसी सेतु द्वारा एक ही महीने में सेना सहित महासागर को पार कर लिया। तत्पश्चात् उन्होंने लंका की सीमा में पहुँचकर वानरों द्वारा वहाँ से बड़े-बड़े उद्यानों को दिन्न-भिन्न करा दिया।। उस सेना मे वानरों का रूप धारण करके रावण के दो मन्त्री शुक और सारण गुप्तचर का काम करने के लिये घुस आये थे। विभीषण ने उन दोनों को पहचानकर कैद कर लिया। जब वे दोनों निशाचर अपने राक्षसरूप में प्रकट हुए, तब श्रीराम ने उन्हें अपनी सेना का दर्शन कराकर छोड़ दिया। लंकापुरी के उपवन में वानर सेना को ठहराकर श्रीरघुनाथजी ने बुद्धिमान वानर अंगद को दूत के रूप में रावण के यहाँ भेजा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत रामोख्यान पर्व में सेतुबन्ध विषयक दो सौ तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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