एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: एकविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
ययाति का स्वर्गलोक से पतन और उनके दौहित्रों, पुत्री तथा गालव मुनि का उन्हें पुन स्वर्गलोक में पहुंचाने के लिए अपना-अपना पुण्य देने के लिए उद्यत होना
नारदजी कहते हैं– राजन ! तत्पश्चात ययाति अपने सिंहासन से गिरकर उस स्वर्गीय स्थान से भी विचलित हो गए । उनका हृदय काँप सा उठा और शोकाग्नि उन्हें दग्ध करने लगी । उन्होनें जो दिव्य कुसुमों की माला पहन रखी थी, वह मुरझा गई। उनकी ज्ञानशक्ति लुप्त होने लगी। मुकुट और बाजूबंद शरीर से अलग हो गए। उन्हें चक्कर आने लगा । उनके सारे अंग शिथिल हो गए और वस्त्र तथा आभूषण भी खिसक-खिसककर गिरने लगे । वे अंधकार से आवृत होने के कारण स्वयं स्वर्गवासियों को नहीं दिखाई देते थे, परंतु वे उन्हें बार-बार देखते और कभी नहीं भी देख पाते थे । पृथ्वी पर गिरने से पहले शून्य-से होकर शून्य हृदय से राजा यह चिंता करने लगे कि मैंने अपने मन से किस धर्मदूषक अशुभ वस्तु का चिंतन किया है, जिसके कारण मुझे अपने स्थान से भ्रष्ट होना पड़ा है। स्वर्ग के राजर्षि, सिद्ध और अप्सरा– सभी ने स्वर्ग से भ्रष्ट हो अवलम्बशून्य हुए राजा ययाति को देखा। राजन ! इतने में ही पुण्यरहित पुरुषों को स्वर्ग से नीचे गिराने वाला कोई पुरुष देवराज की आज्ञा से वहाँ आकर यताति से इस प्रकार बोला- ‘राजपुत्र ! तुम अत्यंत मदमत्त हो और कोई भी ऐसा महान पुरुष यहाँ नहीं है, जिसका तुम तिरस्कार न करते हों । इस मान के कारण ही तुम अपने स्थान से गिर रहे हो । अब तुम यहाँ रहने के योग्य नहीं हो। ‘तुम्हें यहाँ कोई नहीं जानता है; अत: जाओ, नीचे गिरो ।’ जब उसने ऐसा कहा, तब नहुषपुत्र ययाति तीन बार ऐसा कहकर नीचे जाने लगे कि मैं सत्पुरुषों के बीच में गिरूँ। जंड्ग्म प्राणियों में श्रेष्ठ ययाति गिरते समय अपनी गति के विषय में चिंता कर रहे थे । इसी समय उन्होनें नैमिषारण्य में चार श्रेष्ठ राजाओं को देखा और उन्हीं के बीच में वे गिरने लगे। वहाँ प्रतर्दन, वसुमना, औशीनर शिबी तथा अष्टक– ये चार नरेश वाजपेययज्ञ के द्वारा देवेश्वर श्रीहरि को तृप्त करते थे। उनके यज्ञ का धूम मानों स्वर्ग का द्वार बनकर उपस्थित हुआ था । ययाति उसी को सूंघते हुए पृथ्वी की ओर गिर रहे थे । भूतल से स्वर्ग तक धुममयी नदी सी प्रवाहित हो रही थी, मानो आकाशगंगा भूमि पर जा रही हों । भूपाल ययाति उसी धूमलेखा का अवलम्बन करके लोकपालों के समान तेजस्वी तथा अवभृथ स्नान से पवित्र अपने चारों संबंधियों के बीच में गिरे। वे चारों श्रेष्ठ राजा उन चार विशाल अग्नियों के समान तेजस्वी थे, जो हविष्य की आहुती पाकर प्रज्वलित हो रहे हों । राजा ययाति अपना पुण्य क्षीण होने पर उन्हीं के मध्य भाग में गिरे। अपनी दिव्य कांति से उदासित होने वाले उन महाराज से सभी भूपालों ने पूछा– ‘आप कौन हैं ? किसके भाईबंधु हैं तथा किस देश और नगर में आपका निवास स्थान है ? आप यक्ष हैं या देवता ? गंधर्व हैं या राक्षस ? आपका स्वरूप मनुष्यों- जैसा नहीं है । बताइये, आप कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करना चाहते हैं’।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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