महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 33 श्लोक 1-8
त्रयसंत्रिश (33) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
ब्राह्मण का पत्नी के प्रति अपने ज्ञाननिष्ठ स्वरूप का परिचय देना
ब्राह्मण ने कहा- भीरू! तुम अपनी बुद्धि से मुझे जैसा समझकर फटकार रही हो, मैं वैसा नहीं हॅंू। मैं इस लोक में देहाभिमानियों की तरह आचरण नहीं करता। तुम मुझे पाप-पुण्य में आसक्त देखती हो, किंतु वास्तव में मैं ऐसानहीं हूँ। मैं ब्राह्मण, जीवन्मुक्त महात्मा, वानप्रस्त, गृहस्थ और ब्रह्मचारी सब कुछ हूँ। इस भूतल पर जो कुछ दिखायी देता है, वह सब मेरे द्वारा व्याप्त है। संसार में जो कोई भी स्थावर जंगम प्राणी हैं, उन सबका विनपश करने वाला मृत्यु उसी प्रकार मुझे समझो, जिस प्रकार कि लकड़ियों का विनाश करने वाला अग्नि है। सम्पूर्ण पृथ्वी तथा स्वर्ग पर जो राज्य है, उसे यह बुद्धि जानती है, अत: बुद्धि ही मेरा धन है। ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आरम में स्थित ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण जिस मार्ग से चलते हैं, उन ब्राह्मणों का मार्ग एक ही है। क्योंकि वे लोग बहुत से व्याकुलता रहित चिन्हों को धारण करके भी एक बुद्धि का ही आश्रय लेते हैं। भिन्न-भिन्न आरमों में रहते हुए भी जिनकी बुद्धि शान के साधन में लगी हुई है, वे अन्त में एकमात्र सत्स्वरूप ब्रह्म को उसी प्रकार प्राप्त होते हैं, जिस प्रकार सब नदियाँ समुद्र को प्रापत होती हैं। यह मार्ग बुद्धिगम्य है, शरीर के द्वारा इसे नहीं प्राप्त किया जा सकता। सभी कर्म आदि और अन्त वाले हैं तथा शरीर कर्म का हेतु है। इसलिये देवि! तुम्हें परलोक के लिये तनिक भी भय नहीं करना चाहिये। तुम परमात्मभाव की भवना में रत रहकर अन्त में मेरे ही स्वरूप को प्राप्त हो जाओगी।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीतापर्व में ब्राह्मणगीता विषयक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|