श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 14-25
द्वादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)
परीक्षित्! संसार के बड़े-बड़े प्रतापी और महान् पुरुष हुए हैं। वे लोकों में अपने यश का विस्तार करके यहाँ से चल बसे। मैंने तुम्हें ज्ञान और वैराग्य का उपदेश करने के लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणी का विलास मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है । भगवान् श्रीकृष्ण का गुणानुवाद समस्त अमंगलों का नाश करने वाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसी का गान करते रहते हैं। जो भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेममयी भक्ति की लालसा रखता हो, उसे नित्य-निरन्तर भगवान् के दिव्य गुणानुवाद का ही श्रवण करते रहना चाहिये । राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! मुझे तो कलियुग में राशि-राशि दोष ही दिखायी दे रहे हैं। उस समय लोग किस उपाय से उन दोषों का नाश करेंगे। इसके अतिरिक्त युगों का स्वरुप, उनके धर्म, कल्प की स्थिति और प्रलय काल के मान एवं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान् के कालरूप का भी यथावत् वर्णन कीजिये । श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सत्ययुग में धर्म के चार चरण होते हैं; वे चरण हैं—सत्य, दया, तप और दान। उस समय के लोग पूरी निष्ठा के साथ अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। धर्म स्वयं भगवान् का स्वरुप हैं । सत्ययुग के लोग बड़े सन्तोषी और दयालु होते हैं। वे सबसे मित्रता का व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन उनके वश में रहते हैं और सुख-दुःख आदि द्वन्दों को वे समान भाव से सहन करते हैं। अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बाकी लोग स्वरुप-स्थिति के लिये अभ्यास में तत्पर रहते हैं । परीक्षित्! धर्म के समान अधर्म के भी चार चरण हैं—असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह। त्रेतायुग में इनके प्रभाव से धीरे-धीरे धर्म के सत्य आदि चरणों का चतुर्थाश क्षीण हो जाता है । राजन्! उस समय वर्णों में ब्राम्हणों को प्रधानता अक्षुण्ण रहती हैं। लोगों में अत्यन्त हिंसा और लम्पटता का अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और तपस्या में निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप त्रिवर्ग का सेवन करते हैं। अधिकांश लोग कर्म प्रतिपादक वेदों के पारदर्शी विद्वान् होते हैं । द्वापरयुग में हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष—अधर्म के इन चरणों की वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्म के चारों चरण—तपस्या, सत्य, द्या और दान आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं । उस समय के लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्ड और वेदों के अध्ययन-अध्यापन में बड़े तत्पर होते हैं। लोगों के कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्रायः लोग धनाढ्य एवं सुखी होते हैं। उस समय वर्णों में क्षत्रिय और ब्राम्हण दो वर्णों की प्रधानता रहती है । कलियुग में तो अधर्म के चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्म के चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश का भी लोप हो जाता है । कलियुग में लोग लोभी, दुराचारी और कठोर ह्रदय होते हैं। वे झूठमूठ एक-दूसरे से वैर मोल ले लेते हैं, एवं लालसा-तृष्णा की तरंगों में बहते रहते हैं। उस समय के अभागे लोगों में शूद्र, केवट आदि की प्रधानता रहती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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