श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 12-26
द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)
कश्यप ब्राम्हण सर्पविष की चिकित्सा करने में बड़े निपुण थे। तक्षक ने बहुत-सा धन देकर कश्यप को वहीं से लौटा दिया, उन्हें राजा के पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राम्हण के रूप में छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित् के पास गया और उन्हें डस लिया । राजर्षि परीक्षित् तक्षक के डसने के पहले ही ब्रम्ह में स्थित हो चुके थे। अब तक्षक के विष की आग से उनका शरीर सबके समाने ही जलकर भस्म हो गया । पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओं में बड़े जोर से ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी। देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित् की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये । देवताओं की दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। देवता लोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पों की वर्षा करने लगे । जब जमेजय ने सुना कि तक्षक ने मेरे पिताजी को डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। अब वह ब्राम्हणों के साथ विधिपूर्वक सर्पों का अग्निकुण्ड में हवन करने लगा । तक्षक ने देखा कि जनमेजय के सर्प-सत्र की प्रज्वलित अग्नि में बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया । बहुत सर्पों के भस्म होने पर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षित्नन्दन राजा जनमेजय ने ब्राम्हणों से कहा कि ‘ब्राम्हणों! अब तक सर्पाधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा है ?’ । ब्राम्हणों ने कहा—‘राजेन्द्र! तक्षक इस समय इन्द्र की शरण में चला गया है और वे उसकी रखा कर रहे हैं। उन्होंने ही तक्षक को स्तम्भित कर दिया है, इसी से वह अग्निकुण्ड में गिरकर भस्म नहीं हो रहा है’ । परीक्षित्नन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान् और वीर थे। उन्होंने ब्राम्हणों की बात सुनकर ऋत्विजों से कहा कि ‘ब्राम्हणों! आप लोग इन्द्र के साथ तक्षक को क्यों नहीं अग्नि में में गिरा देते ?’’ । जनमेजय की बात सुनकर ब्राम्हणों ने उस यज्ञ में इन्द्र के साथ तक्षक का अग्निकुण्ड में आवाहन किया। उन्होंने कहा—‘रे तक्षक! तू मरुद्गण के सहचर इन्द्र के साथ इस अग्निकुण्ड में शीघ्र आ पड़’ । जब ब्राम्हणों ने इस प्रकार आकर्षण मन्त्र का पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान—स्वर्ग लोक से विचलित हो गये। विमान पर बैठे हुए इन्द्र तक्षक के साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काटने लगा । अंगिरानन्दन बृहस्पतिजी ने देखा कि आकाश से देवराज इन्द्र विमान और तक्षक के साथ ही अग्निकुण्ड में गिर रहे हैं; तब उन्होंने राजा जनमेजय से कहा । ‘नरेन्द्र! सर्पराज तक्षक को मार डालना आपके योग्य काम नहीं है। यह अमृत पी चुका है। इसलिये यह अजर और अमर है । राजन्! जगत् के प्राणी अपने-अपने कर्म के अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं। कर्म के अतिरिक्त और कोई भी किसी को सुख-दुःख नहीं दे सकता ।जनमेजय! यों तो बहुत-से लोगों की मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदि से तथा भूख-प्यास, रोग आदि निमित्तों से होती है; परन्तु यह तो कहने की बात है। वास्तव में तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्म का ही उपभोग करते हैं ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-