महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 69 श्लोक 1-15

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एकोनसप्ततिम (69) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनसप्ततिम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
राजा के प्रधान कर्तव्यों का तथा दण्ड़नीति के द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह ! राजा के द्वारा विशेष रूप से पालन करने योग्य और कौन-सा कार्य शेष है? उसे गाँवो की रक्षा करनी चाहिये और शत्रुओं को किस प्रकार जीतना चाहिये? राजा गुप्तचर की नियुक्ति कैसे करे? सब वर्णों के मन में किस प्रकार विश्वास उत्पन्न करे? भारत ! वह भृत्यों, स्त्रियों और पुत्रों को भी कैसे कार्यं मे लगावे? तथा उनके मन में भी किस तरह विश्वास पैदा करे? भीष्म जी ने कहा-महाराज ! क्षत्रिय राजा अथवा राजकार्य करने वाले अन्य पुरूष को सबसे पहले जो कार्य करना चाहिये, वह सारा राजकीय आचार-व्यवहार सावधान होकर सुनो। राजा को सबसे पहले सदा अपने मनपर विजय प्राप्त करनी चाहिये, उसके बाद शत्रुओं को जीतने की चेष्टा करनी चाहिये। जिस राजा ने अपने मन को नहीं जीता, वह शत्रुपर विजय कैसंे पा सकता हैं? श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियों को वश में रखना यही मनपर विजय पाना है। जितेन्द्रिय नरेश ही अपने शत्रुओं का दमन कर सकता हैं। कुरूनन्दन ! राजा को किलों में, राज्य की सीमापर तथा नगर और गाँव के बगीचों में सेना रखनी चाहियें। नरसिंह ! इसी प्रकार सभी पड़ावों पर, बड़े-बड़े गाँवों और नगरों में, अन्तःपुर में तथा राजमहल के आस-पास भी रक्षक सैनिकों की नियुक्ति करनी चाहिये। तदनन्तर जिन लोगों की अच्छी तरह परीक्षा कर ली गयी हो, जो बुद्धिमान् होने पर भी देखने में गूँगे, अँधे और बहरे-से जान पड़ते हों तथा जो भूख-प्यास और परिश्रम सहने की शक्ति रखते हों, ऐसे लोगों को ही गुप्तचर बनाकर आवश्यक कार्यों में नियुक्त करना चाहिये। महाराज ! राजा एकाग्रचित्त हो सब मन्त्रियों, नाना प्रकार के मित्रों तथा गुप्तचर नियुक्त करें। नगर, जनपद तथा मल्ललोग जहाँ व्यायाम करते हों, उन स्थानों में ऐसी युक्ति से गुप्तचर नियुक्त करने चाहिये, जिससे वे आपस में भी एक-दूसरे को पहचान न सकें। भरतश्रेष्ठ! राजा को अपने गुप्तचरों द्वारा बाजारों, लोगों के घुमने-फिरने के स्थानों, सामाजिक उत्सवों, भिक्षुकों के समुदायों, बगीचों, उद्यानों, विद्वानों की सभाओं, विभिन्न प्रान्तों, चैराहों, सभाओं और धर्मशालाओं में भेजे हुए गुप्तचरों का पता लगाते रहना चाहियें। पाण्डुनन्दन ! इस प्रकार बुद्धिमान् राजा शत्रु के गुप्तचर का टोह लेता रहे। यदि उसने शत्रु के जासूस का पहले ही पता लगा लिया तो इससे उसका बड़ा हित होता हैं। यदि राजा को अपना पक्ष स्वयं ही निर्बल जान पड़े तो मन्त्रियों से सलाह लेकर बलवान् शत्रु के साथ संधि कर ले। पते! विद्वान् क्षत्रिय, वैश्य तथा अनेक शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मण यदि दण्डनीति के ज्ञान में निपुण हों तो इन्हें मन्त्री बनाना चाहिये। पहले नीतिशास्त्र का तत्त्व जानने वाले विद्वान ब्राह्मण से किसी कार्य के लिये सलाह पूछनी चाहिये। इसके बाद पृथ्वीपालक नरेश को चाहिये कि वह नीतिज्ञ क्षत्रिय से अभीष्ट कार्य के विषय में पूछे। तदनन्तर अपने हित में लगे रहने वाले शास्त्रज्ञ वैश्य और शूद्रांे से सलाह ले। अपनी हीनता या निर्बलता का पता शत्रु को लगने से पहले ही शत्रु के साथ संधि कर लेनी चाहिये। यदि इस संधि के द्वारा कोई प्रयोजन सिद्ध करने की इच्छा हो तो विद्वान् एवं बुद्धिमान् राजा को इस कार्यं में विलम्ब नहीं करना चाहिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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