महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 1-13
त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
कुंती के द्वारा विदुलोपाख्यान का आरंभ, विदुला का रणभूमि से भागकर आए हुए अपने पुत्र को कड़ी फटकार देकर पुन: युद्ध के लिए उत्साहित करना
कुंती बोली – शत्रुओं को संताप देने वाले श्रीकृष्ण ! इस प्रसंग में विद्वान पुरुष विदुला और उसके पुत्र के संवाद रूप इस पुरातन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। इस इतिहास में जो कल्याणकारी उपदेश हो, उसे तुम युधिष्ठिर के सामने यथावत रूप से फिर कहना । विदुला नाम से प्रसिद्ध एक क्षत्रिय महिला हो गई हैं, जो उत्तम कुल में उत्पन्न, यशस्विनी, तेजस्विनी, मानिनी, जितेंद्रिया, क्षत्रिय-धर्मपरायाना और दूरदर्शिनी थीं । राजाओं कि मंडली में उनकी बड़ी ख्याति थी । वे अनेक शास्त्रों को जानने वाली और महापुरुषों के उपदेश सुनकर उससे लाभ उठानेवाली थीं । एक समय उनका पुत्र सिंधूराज से पराजित हो अत्यंत दीनभाव से घर आकर सो रहा था । राजरानी विदुला ने अपने उस औरस पुत्र को इस दशा में देखकर उसकी बड़ी निंदा की।
विदुला बोली- अरे, तू मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है तो भी मुझे आनंदित करने वाला नहीं है । तू तो शत्रुओं का ही हर्ष बढ़ाने वाला है, इसलिए अब मैं ऐसा समझने लगी हूँ कि तू मेरी कोख से पैदा ही नहीं हुआ । तेरे पिता ने भी तुझे उत्पन्न नहीं किया, फिर तुझ जैसा कायर कहाँ से आ गया ? तू सर्वथा क्रोधशून्य है, क्षत्रियों में गणना करने योग्य नहीं है । तू नाममात्र का पुरुष है । तेरे मन आदि सभी साधन नपुंसकों के समान हैं । क्या तू जीवनभर के लिए निराश हो गया ? अरे ! अब भी तो उठ और अपने कल्याण के लिए पुन: युद्ध का भार वहन कर। अपने को दुर्बल मानकर स्वयं ही अपनी अवहेलना न कर, इस आत्मा का थोड़े धन से भरण-पोषण न कर, मन को परम कल्याणमय बनाकर– उसे शुभ संकल्पों से सम्पन्न करके निडर हो जा, भय को सर्वथा त्याग दे। ओ कायर ! उठ, खड़ा हो, इस तरह शत्रु से पराजित होकर घर में शयन न कर (उद्योगशून्य न हो जा) । ऐसा करके तो तू सब शत्रुओं को ही आनंद दे रहा है और मान-प्रतिष्ठा से वंचित होकर बंधु-बांधवों को शोक में डाल रहा है। जैसे छोटी नदी थोड़े जल से अनायास ही भर जाती है और चूहे कि अंजलि थोड़े अन्न से ही भर जाती है, उसी प्रकार कायर को संतोष दिलाना बहुत सुगम है, वह थोड़े से ही संतुष्ट हो जाता है। तू शत्रुरूपी साँप के दाँत तोड़ता हुआ तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जा । प्राण जाने का संदेह हो तो भी शत्रु के साथ युद्ध में पराक्रम ही प्रकट कर। आकाश में नि:शंक होकर उड़ने वाले बाज पक्षी की भांति रणभूमि में निर्भय विचारता हुआ तू गर्जना करके अथवा चुप रहकर शत्रु के छिद्र देखता रह। कायर ! तू इस प्रकार बिजली के मारे हुए मुर्दे की भांति यहाँ क्यों निश्चेष्ट होकर पड़ा है ? बस, तू खड़ा हो जा, शत्रुओं से पराजित होकर यहाँ मत पड़ा रह। तू दीन होकर अस्त न हो जा । अपने शौर्यपूर्ण कर्म से प्रसिद्धि प्राप्त कर । तू मध्यम, अधम अथवा निकृष्ट भाव का आश्रय न ले, वरन युद्धभूमि में सिंहनाद करके डट जा।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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