महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 73 श्लोक 9-20

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त्रिसप्ततितम (73) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 9-20 का हिन्दी अनुवाद

जब क्षत्रिय ब्राह्यण को त्याग देते हैं, तब उनका वेदाध्ययन आगे नहीं बढता, उनके पुत्रों की भी वूद्धि नहीं होती, उनके यहाँ दही-दूध का मटका नहीं मथा जाता और न वे यज्ञ ही कर पाते हैं। इतना ही नहीं, उन ब्राह्यणों के पुत्रों का वेदाध्ययन भी नहीं हो पाता। जो क्षत्रिय ब्राह्यणों को त्याग देते है, उनके घर में कभी धन की वृ़िद्ध नहीं होती। उनकी संतानें न तो पढती है और न यज्ञ ही करती हैं। वे पदभ्रष्ट होकर डाकुओं की भाँति लुटपाट करने लगते हैं। वे दोंनों ब्राह्यण और क्षत्रिय सदा एक-दुसरे से मिलकर रहें, तभी वे एक-दुसरे की रक्षा करने में समर्थ होते हैं। ब्राह्यण की उन्नति का आधार क्षत्रिय होता है और क्षत्रिय की उत्रति का आधार ब्राह्यण। ये दोनों जातियाँ जब सदा एक-दुसरे के आश्रित होकर रहती हैं, तब बडी भारी प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं और यदि इनकी प्राचीन काल से चली आती हुई मैत्री टुट जाती है, तो सारा जगत् मोहग्रस्त एवं किंकर्तव्यविमूढ हो जाता है। जैसे महान् एवं अगाध समुद्र में टूटी हुई नौका पार नहीं पहुँच पाती, उसी प्रकार उस अवस्था मेे मनुष्य अपनी जीवन यात्रा को कुशलपूर्वक पूर्ण नहीं कर पाते हैं। चारों वर्णों की प्रजा पर मोह छा जाता है और वह नष्ट होने लगती हैं। ब्राह्यणरूपी वृक्ष की यदि रक्षा की जाती है तो वह मधुर सुख और सुवर्ण की वर्षा करता है और यदी उसकी रक्षा नहीं की गयी तो उससे निरन्तर दु;ख के आँसुओं और पाप की वृष्टि होती है। जहाँ ब्रह्मचारी ब्राह्मण लुटेरों के उपद्रव से विवश हो वेद की शाखा के स्वाध्याय से वन्चित होता है और उसके लिये अपनी रक्षा चाहता है, वहाँ इन्द्रदेव यदि पानी बरसावें तो आश्चर्य की ही बात है ( वहाँ प्रायः वर्षा नहीं होती है ) तथा महामारी और दुर्भिक्ष आदि दुःसह उपद्रव आ पहुँचते है। जब पापात्मा मनुष्य किसी स्त्री अथवा ब्राह्मण की हत्या करके लोगों की सभा में साधुवाद या प्रशंसा पाता है तथा राजा के निकट भी पाप से भय नहीं मानता, उस समय क्षत्रिय राजा के लिये बडा़ भारी भय उपस्थित होता है। इलानन्दन! जब बहुत-से पापी पापाचार करने लगते हैं, तब ये संहारकारी रुद्रदेव प्रकट हो जाते हैं। पापात्मा पुरुष अपने पापों द्धारा ही रुद्र को प्रकाट करते हैं; फिर वे रुद्रदेव साधु और असाधु सब लोगों का संहार कर डालते हैं। पुरुरवाने पूछा- कश्यपजी! ये रुद्रदेव कहाँ से आते हैं, और कैसे हैं? इस जगत् में तो प्राणियों द्धारा ही प्राणियों का वध होता देखा जाता है; फिर ये रुद्रदेव किससे उत्प्रन्न होते हैं? ये सब बातें मुझे बताइये। कश्यप ने कहा- राजन्! यंे रुद्रदेव मनुष्यों के हृदय में आत्मारूप से निवास करते हैं और समय आने पर अपने तथा दुसरे के शरीरों का नाश करते हैं। विद्धान् पुरूष रूद्रको उत्पात-वायु (तूफानी हवा) के समान वेगवान् कहते हैं और उनका रूप बादलों के समान बताते हैं। पुरूरवाने कहा- कोई भी हवा किसी को आवृत नहीं करती है, न अकेले मेघ ही पानी बरसाता है, रूददेव भी वर्षा नहीं करते हैं। जैसे वायु और बादल को आकश में संयुक्त देखा जाता है, उसी प्रकार मनुष्यों में आत्मा मन, इन्द्रिय आदि से संयुक्त ही देखा जाता हैं और वह राग द्धेष के कारण मोहग्रस्थ होता हैं तथा मारा जाता हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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