त्रिसप्ततितम (73) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिसप्ततितम अध्याय: श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद
कश्यप ने कहा- जैसे एक घर में लगी हुई आग प्रज्वलित हो आँगन तथा सारे गाँव को जला देती है, उसी प्रकार ये रूद्रदेव किसी एक प्राणी के मोह उत्पन्न करते हैं; फिर सारे जगत् का पुण्य और पाप से सम्बन्ध हो जाता हैं । पुरूरवाने पूछा- यदि पापीयों द्धारा विशेष रूप से पाप और पुण्य-पाप से रहित आत्मा को भी दण्ड भोगना पडता है, तब किसलिए कोई पुण्य करे और किसलिए पाप न करें ? कश्यप ने कहा- पापाचारियों के संसर्ग का त्याग न रखने से पापहीन-धर्मात्मा पुरूषों को भी उनसे मेल-जोल रखने के कारण उनके समान ही दण्ड भोगना पडता है। ठीक उसी तरह, जैसे सुखी लकडियों के साथ मिली होने से लकडी भी जल जाती हैं। अतः विवेकी पुरूष को चाहिये कि पापीयों के साथ किसी तरह भी सम्पर्क न स्थापित करे। पुरूरवा बोले-इस जगत् में पृथ्वी तो पापियों और पुण्यात्माओं को समान रूप से धारण करती हैं। सूर्यं भी भले-बुरों का एक-सा ही संताप देते हैं। वायु साधु और दुष्ट दोनों का स्पर्शं करती हैं और जल पापी एवं पुण्यात्मा दोनों को पवित्र करता हैं। कश्यप ने कहा-राजकुमार ! इस लोक में ही ऐसी बात देखी जाती हैं, परलोक में इस प्रकार का बर्ताव नहीं हैं। जो पुण्य करता है वह और जो पाप करता है वह-दोनों जब मृत्यु के पश्चात् परलोक में जाते हैं तो वहाँ उन दोनों की स्थिति में बड़ा भारी अन्तर हो जाता हैं। पुण्यात्मा का लोक मधुरतम सुख से भरा होता हैं। वहाँ घी के चिराग जलते हैं। उसमें सुवर्णं के समान प्रकाश फैला रहता हैं। वहाँ अमृत का केन्द्र होता हैं। उस लोक में न तो मृत्यु हैं, न बुढ़ापा हैं और न दूसरा ही कोई दुःख हैं। ब्रह्मचारी पुरूष मृत्यु के पश्चात् उसी स्वर्गांदि लोक में जाकर आनन्द का अनुभव करता हैं। पापी का लोक नरक हैं, जहाँ सदा अँधेरा छाया रहता हैं। वहाँ प्रतिदिन दुःख तथा अधिक-से-अधिक शोक होता हैं। पापात्मा पुरूष वहाँ बहुत वर्षों तक कष्ट भोगता हुआ कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता और निरन्तर अपने लिये शोक करता रहता हैं। ब्राह्मण और क्षत्रियों मे परस्पर फूट होने से प्रजा को दुःसह दुःख उठाना पड़ता हैं। इन सब बातों को समझ-बूझकर राजा को चाहिये कि वह सदा के लिये एक सदाचारी बहुज्ञ पुरोहित बना ही ले। राजा पहले पुरोहित का वरण कर ले। उसके बाद अपना अभिषेक करावे। ऐसा करने से ही धर्मं का पालन होता हैं; क्योंकि धर्मं के अनुसार ब्राह्मण यहाँ सबसे श्रेष्ठ बताया गया हैं।
वेदवेत्ता विद्वानों का मत हैं कि सबसे पहले ब्राह्मण की ही सृष्टि हुई हैं; अतः ज्येष्ठ तथा उत्तम कुल में उत्पन्न होने के कारण प्रत्येक उत्कृष्ट वस्तु पर सबसे पहले ब्राह्मण का ही अधिकार होता हैं। इसलिये ब्राह्मण सब वर्णों का सम्माननीय और पूजनीय हैं । वहीं भोजन के लिये प्रस्तुत की हुई सब वस्तुओं को सबसे पहले भोगने का अधिकारी हैं। सभी श्रेष्ठ और उत्तम पदार्थों को धर्मं के अनुसार पहले ब्राह्मण की सेवा में ही निवेदित करना चाहिये। बलवान् राजा को भी अवश्य ऐसा ही करना चाहिये। ब्राह्मण क्षत्रिय को बढ़ाता हैं और क्षत्रिय से ब्राह्मण की उन्नति होती हैं। अतः राजा को विशेष रूप से सदा ही ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिये; क्योंकि राजपुरोहित राजा का तथा अन्य सब लोगों का भी स्वामी हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गंत राजधर्मांनुशासनपर्वं में पुरूरवा और कश्यप का संवादविषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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