महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 76 श्लोक 1-15

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षट्सप्ततितम (76) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: षट्सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
उत्तर-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! कुछ ब्राह्मण अपने वर्णोचित कर्मों में लगे रहते है तथा दूसरे बहुत से ब्राह्मण अपने वर्ण के विपरीत कर्म में प्रवुत्त हो जाते है। उन सभी ब्राह्मणों में क्या अन्तर है? यह मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा- राजन्! जो विद्वान उत्तम लक्षणों से सम्पन्न तथा सर्वत्र समान दृष्टि रखने वाले है, ऐसे ब्राह्मण ब्राह्माजी के समान कहे गये है। नरेश्वर! जे ऋग्, यजु; और सामवेद का अध्ययन करके अपने वर्णोचित कर्मों में लगे हुए है, वे ब्राह्मणों में देवता के समान समझे जाते है। राजन्! जो अपने जातीय कर्म से हीन हो कुत्सित कर्मों में लगकर ब्राह्मण से भ्रष्ट हो चुके है, ऐसे लोग ब्राह्मणों में शूद्र के तुल्य होते है। जो ब्राह्मण वेदशास्त्रों के ज्ञान से शून्य है तथा जो अग्निहोत्र नहीं करते है, वे सभी शूद्रतुल्य है। धर्मात्मा राजा को चाहिये कि इन सब लोगों से कर ले और बेगार करावे। न्यायालय में या कही भी लोगों को बुलाकर लाने का काम करने वाले, वेतन लेकर देवमन्दिर में पूजा करने वाले, नक्षत्र-विद्याद्वारा जीविका चलाने वाले, ग्रामपुरोहित तथा पाँचवें महापथिक (दूर देश के यात्री या समुद्र यात्रा करने वाले) ब्राह्मण चाण्डाल के तुल्य माने जाते है। जो कोई म्लेच्छ देश है और जहाँ पापी मनुष्य निवास करते है, वहाँ जाकर ब्राह्मण इहलोक में चाण्डाल के तुल्य हो जाता है, और मृत्यु के बाद अधोगति को प्राप्त होता है। संस्कार भ्रष्ट, म्लेच्छ तथा शूद्रों का यज्ञ कराकर पतित हुआ अधम ब्राह्मण इस संसार में अपयश पाता और मरने के बाद नरक में गिरता है। जो मुर्ख ब्राह्मण ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों का विप्लव करता है, वह एक कल्पतक नाना प्राणियों की विष्ठाओं का कीडा होता है। राजन्! ब्राह्मणों में से जो ऋत्विज, राजपुरोहित, मन्त्री, राजदूत अथवा संदेशवाहक हों, वे क्षत्रिय के समान माने जाते है। नरेश्वर! घुडसवार, हाथीसवार, रथी और पैदल सिपाही का काम करने वाले ब्राह्मणों को वैश्य के समान समझा जाता है। यदि राजा के खजाने में कमी हो तो वह इन ब्राह्मणों से कर ले सकता है। केवल उन ब्राह्मणों से, जो ब्रह्माजी तथा देवताओं के समान बताये गये है, कर नहीं लेना चाहिये। राजा ब्राह्मण के सिवा अन्य सब वर्णों के धन का स्वामी होता है, यही वैदिक सिद्धान्त है। ब्राह्मणों में से जो कोई अपने वर्ण के विपरीत कर्म करने वाले है, उनके धन पर भी राजा का ही अधिकार है। राजा को कर्मभ्रष्ट ब्राह्मणों को किसी प्रकार उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। बल्कि धर्म पर अनुग्रह करने के लिये उन्हें दण्ड देना और श्रेष्ठ ब्राह्मणों की श्रेणी से अलग कर देना चाहिए। राजन्! जिस किसी भी राजा के राज्य में यदि ब्राह्मण चोर बन जाता है तो उसकी इस परिस्थिति के लिये जानकार लोग उस राजा का ही अपराध ठहराते है। नरेश्वर! यदि कोई वेदवेत्ता अथवा स्नातक ब्राह्मण जीविका के अभाव में चोरी करता हो तो राजा को उचित है कि उसके भरण पोषण की व्यवस्था करे; यह वेदवेत्ताओं का मत है। परंतप! यदि जीविका का प्रबन्ध कर देने पर भी उस ब्राह्मण में कोई परिवर्तन न हो- वह पूर्ववत् चोरी करता ही रह जाय तो उसे बन्धु बान्धवों सहित उस देश से निर्वासित कर देना चाहिये। यज्ञ, वेदों का अध्ययन, किसी की चुगली न करना, किसी भी प्राणी को मन, वाणी और क्रियाद्वारा क्लेश न पहुँचाना, अतिथियों का पूजन करना, इन्द्रियों को संयम में रखना, सच बोलना, तप करना और दान देना, यह सब ब्राह्मण का लक्षण है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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