सप्तसप्ततितम (77) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तसप्ततितम (77) अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
- केकयराज तथा राक्षस का उपाख्यान और केकयराज्य की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतकुलभूषण पितामह! किन-किन मनुष्यों के धन पर राजा का अधिकार होता है? तथा राजा को कैसा बर्ताव करना चाहिये? यह मुझे बताइये । भीष्मजने कहा -राजन्! ब्राह्यण के सिवा अन्य सभी वर्णों के धन का स्वामी राजा होता है, यह वैदिक मत है। ब्राह्यणों में भी जो कोई अपने वर्ण के विपरीत कर्म करते हों, उनके धनपर भी राजा का ही अधिकार है। अपने वर्ण के विपरीत कर्मों में लगे हुए ब्राह्यणों की राजा को किसी प्रकार उपेक्षा नहीं करनी चाहिये (क्योंकि उन्हें दण्ड देकर भी राह पर लाना राजा का कर्तव्य है)। साधुपुरूष इसी को राजाओं का प्राचीकाल से चला आता हुआ बर्ताव या धर्म कहते हैं। नरेश्वर! जिस राजा के राज्य मे कोई ब्राह्यण चोरी करने लग जाता है, वह राजा अपराधी माना जाता है। विचारवान् पुरूष इसे राजा का ही अपराध और पाप समझते हैं। ब्राह्यण में उक्त दोष आ जाय तो उससे राजा अपने आपको कलकिंत मानते है; इसीलिये सभी राजर्षियों ने ब्राह्यणों की सदा ही रक्षा की है। इस विषय मे जानकार लोग एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। जिसमें राक्षस के द्धारा अपह्नत होते समय केकयराज के प्रकट किये हुए उद्गार का वर्णन है। राजन्! एक समय की बात है, केकयराज वन में रहकर कठोर व्रत का पालन (तप) और स्वाध्याय किया करते थे। एक दिन उन्हें एक भयंकर राक्षस ने पकड लिया। यह देख राजा ने उस राक्षस से कहा- मेरे राज्य में एक भी चोर, कंजूस, शराबी अथवा अग्निहोत्र और यज्ञ का त्याग करने वाला नहीं है तो भी तुम्हारा मेरे शरीर में प्रवेश कैस हो गया ? मेरे राज्य में एक भी ब्राह्यण ऐसा नहीं है जो विद्धान्, उतम व्रत का पालन करने वाला, यज्ञ में सोमरस पीनेवाला, अग्रिहोत्री और यज्ञकर्ता न हो तो भी तुमने मेरे भीतर कैसे प्रवेश किया? मेरे राज्य में समस्त द्धिज नाना प्रकार की उत्तम दक्षिणाओं से युक्त यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं। कोई भी ब्रह्यचर्यव्रत का पालन किये बिना वेदों का अध्धयन नहीं करता। फिर भी मेरे शरीर के भीतर तुम्हारा प्रवेश कैसे हुआ ? मेरे राज्य के ब्राह्यण पढते -पढाते, यज्ञ करते -कराते, दान देते और लेते हैं। इस प्रकार वे ब्राह्यणोचित छः कर्मों में ही संलग्न रहते हैं। मेरे राज्य के सभी ब्राह्यण अपने-अपने कर्म में तत्पर रहने वाले हैं। कोमल स्वभाव वाले तथा सत्वादी हैं। उन सबको मेरे राज्य से वृत्ति मिलती है, तथा वे मेरे द्धारा पुजित होते रहते हैं तो भी तुम्हारा मेरे शरीर के भीतर प्रवेश कैसे सम्भव हुआ ? मेरे राज्य मे जो क्षत्रिय हैं, वे अपने वर्णोचित कर्मों मे लगे रहते हैं, वे वेदों का अध्ययन तो करते हैं, परन्तु अध्यापन नहीं करते; यज्ञ करते हैं,परंतु नहीं हैं तथा दान देते हैं, किन्तु स्वंय लेते नहीं हैं। मेरे राज्य के क्षत्रिय याचना नहीं करते; स्वंय ही याचकों को मुँहमाँगी वस्तुएँ देते हैं, सत्यभाषी तथा धर्म सम्पादन में कुशल हैं वे ब्राह्यणों की रक्षा करते हैं और युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाते हैं तो भी तुम मेरे शरीर के भीतर कैसे प्रविष्ट हो गयें?
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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