एकोनाशीतितम (79) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनाशीतितम अध्याय: श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद
वेदों का यह सिद्धांत है कि सोम ब्राह्मणों का राजा है; परंतु यज्ञ के लिये ब्राह्मण लोग उसे भी बेच देने की इच्छा रखते हैं। जहाँ यज्ञ आदि कोई अनिवार्य कारण उपस्थित न हो वहाँ व्यर्थ ही उदरपूर्ति के लिये सोमरस का विक्रय अभीष्ट नहीं हैं। दक्षिणा द्वारा उस सोमरस के साथ खरीद किये हुए यज्ञ-साधनों से यजमान के यज्ञ का विस्तार होता है। धर्मं का आचरण करने वाले ऋषियों ने इस विषय में धर्मं के अनुसार ऐसा ही विचार व्यक्त किया हैं। यज्ञकर्ता पुरूष, यज्ञ और सोमरस-ये तीनों जब न्याय-सम्पन्न होते है तब यज्ञ का यथार्थ रूप से सम्पादन होता है। अन्यायपरायण पुरूष न दूसरे का भला कर सकता है, न अपना ही। शरीर-निर्वाह मात्र के लिये धन प्राप्त करकें यज्ञ में प्रवृत हुए महानमनस्वी ब्राह्मणों द्वारा जो यज्ञ सम्पादित होते हैं, वे भी हिंसा आदि दोषों से युक्त होने पर उत्तम फल नहीं देते हैं, ऐसा श्रुति का सिद्धांत सुनने में आता है। अतः यज्ञ की अपेक्षा भी तप श्रेष्ठ है, यह वेद का परम उत्तम वचन है। विद्वान युधिष्ठिर ! मैं तुम्हें तप का स्वरूप बताता हूँ, तुम मुझसे उसके विषय में सुनो। किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, सत्य बोलना, क्रूरता को त्याग देना, मन और इन्द्रियों को संयम में रखना तथा सबके प्रति दयाभाव बनाये रखना-इन्हीं को धीर पुरूषों ने तप माना है। केवल शरीर सुखाना ही तप नहीं हैं। वेद को अप्रमाणिक बताना, शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन करना तथा सर्वत्र अव्यवस्था पैदा करना-ये सब दुर्गुण अपना ही नाश करने वाले हैं। कुन्तीनन्दन ! दैवी सम्पदायुक्त होताओं के यज्ञ-सम्बन्धी उपकरण जिस प्रकार के होते हैं, उन्हे सुनो। उनके सहायक चित्ति ही स्त्रुक् है, चित्त ही आज्य (घी) है और उत्तम ज्ञान ही पावित्री हैं। सारी कुटिलता मृत्यु का स्थान है और सरलता परब्रह्म की प्राप्ति का स्थान है। इतना ही ज्ञान का विषय है और सब प्रलापमात्र है, वह किस काम आयेगा?
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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