द्वयशीतितम (82) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयशीतितम अध्याय: श्लोक 30-43 का हिन्दी अनुवाद
मुँह से कोई बुरी बात न निकल जाय, कोई बुरा काम न बन जाय, खडा होते, किसी आसन पर बैठते चलते, संकेत करते तथा किसी अंग के द्वारा कोई चेष्टा करते समय असभ्यता अथवा बेअदबी न हो जाय, इसके लिये सदा सतर्क रहना चाहिये। यदि राजा को प्रसन्न कर लिया जाय तो वह देवता की भाँति सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध कर देता है और यदि कुपित हो जाय तो जलती हुई आग की भाँति जड मूलसहित भस्म कर डालता है। राजन्! यमराज ने जो यह बात कही है, वह ज्यों की त्यों ठीक है; फिर भी मैं तो बारंबार आपके महान अर्थ का साधन करूंगा ही। मेरे जैसा मन्त्री आपत्तिकाल में बुद्धिद्वारा सहायता देता है। राजन्! मेरा यह कौआ भी आपके कार्यसाधन में संलग्न था; किंतु मारा गया ( सम्भव है मेरी भी वही दशा हो )। परंतु इसके लिये मैं आपकी और आपके प्रेमियों की निंदा नहीं करता। मेरा कहना तो इतना ही है कि आप स्वयं अपने हित और अनहित को पहचानिये। प्रत्येक कार्य को अपनी आँखों से देखिये। दूसरों की देख भाल पर विश्वास न कीजिये। जो लोग आपका खजाना लूट रहे है और आपके ही घर में रहते है, वे प्रजा की भलाई चाहने वाले नहीं है। वैसे लोगों ने मेरे साथ वैर बाँध लिया है। राजन्! जो आपका विनाश करके आपके बाद इस राज्य को अपने हाथ में लेना चाहता है, उसका वह कर्म अन्तःपुर के सेवकों से मिलकर कोई षड्यन्त्र करने से ही सफल हो सकता है; अन्यथा नहीं ( अतः आपको सावधान हो जाना चाहिये )। नरेश्वर! मैं उन विरोधियों के भय से दूसरे आश्रम में चला जाऊँगा। प्रभों! उन्होंने मेरे लिये ही बाण का संधान किया था; किंतु वह उस कौए पर जा गिर। मैं कोई कामना लेकर यहाँ नहीं आया था तो भी छल-कपट की इच्छा रखने वाले षडयंत्रकारियों ने मेरे कौए को मारकर यमलोक पहुँचा दिया। राजन्! तपस्या के द्वारा प्राप्त हुई दूरदर्शिनी दृष्टि से मैंने यह सब देखा है। यह राजनीति एक नदी के समान है। राजकीय पुरूष उसमें मगर, मत्स्य, तिमिगंल-समूहों और ग्राहों के समान है। बेचारे कौए के द्वारा मैं किसी तरह इस नदी से पार हो सकता हूँ। जैसे हिमालय की कन्दरा में ठूँठ, पत्थर और काँटे होते है, उसके भीतर सिंह और व्याघ्रों का भी निवास होता है तथा इन्हीं सब कारणों से उसमें प्रवेश पाना या रहना अत्यन्त कठिन एवं दुःसह हो जाता है, उसी प्रकार दुष्ट अधिकारियों के कारण इस राज्य में किसी भले मनुष्य का रहना मुश्किल है। अन्धकारमय दुर्ग को अग्नि के प्रकाश से तथा जल दुर्ग को नौकाओं द्वारा पार किया जा सकता है; परंतु राजारूपी दुर्ग से पार होने के लिये विद्वान पुरूष भी कोई उपाय नहीं जानते है। आपका यह राज्य गहन अन्धकार से आच्छन्न और दुख से परिपूर्ण है। आप स्वयं भी इस राज्य पर विश्वास नहीं कर सकते; फिर मैं कैसे करूँगा। अतः यहाँ रहने में किसी का कल्याण नहीं है। यहाँ भले बुरे सब एक समान है। इस राज्य में बुराई करने वाले और भलाई करने वाले का भी वध हो सकता है, इसमें संशय नहीं है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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