महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 83 श्लोक 17-33

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त्रयशीतिम (83) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयशीतिम अध्याय: श्लोक 17-33 का हिन्दी अनुवाद

ऐसा बर्ताव करने वाले विज्ञ पुरूषके शत्रु भी प्रसत्र हो जाते हैं और उसके साथ मैत्री स्थापित कर लेते हैं। इसके बाद मन को वषमें रखनेवाला शद्धबुद्धि और ऐश्वर्यकामी भूपाल अपने मन्त्रिणों के गुण और अवगुण की परीक्षा करे। जिनके साथ कोई न कोई सम्बन्ध हो, जो अच्छे कुल में उत्पन्न, विश्वासपात्र, स्वदेशीय, घूस न खाने वाले तथा व्यभिचार दोष से रहित हों, जिनकी सब प्रकार से भलीभाँति परीक्षा ले ली गयी हो, जो उत्तम जातिवाले, वेद के मार्ग पर चलने वाले, कई पीढियों से राजकीय सेवा करने वाले तथा अहंकारशून्य हो, ऐसे ही लोगों को अपनी उन्नति चाहने वाला ऐश्वर्यकामी पुरूष मन्त्री बनावे। जिनमें विनययुक्त बुद्धि, सुन्दर स्वभाव, तेज, वीरता, क्षमा, पवित्रता, प्रेम, धृति और स्थिरता हो, उनके इन गुणों की परीक्षा करके यदि वे राजकीय कार्यभार को सँभालने में प्रौढ तथा निष्कपट सिद्ध हों तो राजा उनमें से पाँच व्यक्तियों को चुनकर अर्थमन्त्री बनावे। राजन्! जो बोलने में कुशल, शौर्यसम्पन्न, प्रत्येक बात को ठीक-ठीक समझने में निपुण, कुलीन, सत्वयुक्त, संकेत समझने वाले, निष्ठुरता से रहित (दयालु), देश और काल के विधान को जानने वाले तथा स्वामी के कार्य एवं हित की सिद्धि चाहने वाले हों, ऐसे पुरूषों को सदा सभी प्रयोजनों की सिद्धि के लिये मन्त्री बनाना चाहिये। तेजोहीन मन्त्री के सम्पर्क में रहने वाला राजा कभी कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय नहीं कर सकता। वैसा मन्त्री सभी कार्यों में अवश्य ही संशय उत्पन्न कर देता है। इसी प्रकार जो मन्त्री उत्तम कुल में उत्पन्न होने पर भी शास्त्रों का बहुत कम ज्ञान रखता हो, वह धर्म, अर्थ और काम से संयुक्त होकर भी गुप्त मन्त्रणा की परीक्षा नहीं कर सकता। वैसे ही जो अच्छे कुल में उत्पन्न नहीं है, वह भले ही अनेक शास्त्रों का विद्वान हो, किंतु नायकरहित सैनिक तथा नेत्रहीन मनुष्य की भाँति वह छोटे-छोटे कार्यों में भी मोहित हो जाता है- कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं कर पाता। जिसका संकल्प स्थिर नहीं है, वह बुद्धिमान, शास्त्रज्ञ और उपायों का जानकार होने पर भी किसी कार्य को दीर्घकाल में भी पूरा नहीं कर सकता। जिसकी बुद्धि खोटी है तथा जिसे शास्त्रों का बिल्कुल ज्ञान नहीं है, वह केवल मन्त्री का कार्य हाथ में ले लेेने मात्र से सफल नहीं हो सकता। विशेष कार्यों के विषय में उसका दिया हुआ परामर्श युक्तिसंगत नहीं होता है। जिस मन्त्री का राजा के प्रति अनुराग न हो , उसका विश्राम करना ठीक नहीं है अतः अनुराग रहित मन्त्री के सामने अपने गुप्त विचारो को प्रकट न करे। वह कपटी मन्त्री यदि गुप्त विचारों को जान ले तो अन्य मन्त्रीयों के साथ मिलकर राजा को उसी प्रकार पीडा देता है, जैसे आग हवा से भरे हुए छेदों मे घुसकर समूचे वृ़क्ष को भस्म कर डालती है।राजा इन सब बर्तावों को वही मन्त्री को उसके स्थान से हटा देता है और रोष में भरकर वाणी द्धारा उस पर आक्षेप भी करता है परन्तु फिर अन्त में प्रसन्न हो जाता है। राजा के इन सब बर्तावों को वही मन्त्री सह सकता है, जिसका उसके प्रति अनुराग हो। अनुरागशुन्य मन्त्रीयों का क्रोध वज्रपात के समान भयंकर होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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