महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 90 श्लोक 18-35

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नवतितम (90) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

नरेन्द्र! धन से उत्पत्ति होती है। सबको धारण करने के वह निश्चित रूप् से धर्म कहा गया है । वह धर्म अकर्तव्य (पाप) की सीमा का अन्त करने वाला मानम गया है। ब्रह्माजी ने प्राणियों के कल्याणार्थ ही धर्म की अपने देश में प्रजा -जनों पर अनुग्रह करने के लिये धर्म का प्रचार करे। राजसिंह! इसी कारण से धर्म को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। पुरूष प्रवर! जो सद्धर्मके पालनपूर्वक प्रजा का शासन करता है, वही राजा है। भरत भूषण! तुम भी काम और क्रोध की अवहेलना करके निरन्तर धर्म का ही पालन करो। धर्म ही राजाओं के लिये सबसे बढ़कर कल्याण करने वाला है। मान्धाता! धर्म का मूल है ब्राह्मण; इसलिये ब्राह्मणों का सदा सम्मान करना चााहिये, ब्राह्मणों की प्रत्येक कामना को ईष्र्या रहित होकर पूर्ण करना उचित है। उनकी इच्छा पूर्ण न करने से राजाओं के ऊपर भय आता है। राजा के मित्रों की वृद्धि नहीं होती, उलटे शत्रु बनते जाते है। विरोचनकुमार बलि बाल्यकाल से ही सदा ब्राहाणों पर दोषारोपण करते थे; इसलिये उनकी राजलक्ष्मी, जो शत्रुओ को संताप देने वाली थी, उनके पास से हट गयी। बलि से हटकर वह राजलक्ष्मी देवराज इन्द्र के पास चली गयी। फिर इन्द्र के पास उस लक्ष्मी को देखकर राजा बलि को बड़ा पश्चात्ताप होने लगा। प्रभो ! यह अभिमान और असूयाका फल है, अतः मान्धाता! तुम सचेत हो जाओ, कहीं तुम्हारी भी शत्रुतापिनी लक्ष्मी तुमको छोड़ न दे। राजन्! सम्पत्तिका पुत्र है दर्प, जो अधर्म के अंश से उत्पन्न हुआ है, यह श्रतिका कथन है। उस दर्प ने बहुत से देवताओं, असुरों और राजर्षियों का विनाश कर डाला है। अतः भुपाल! अब भी चेतो। जो दर्प को जीत लेता है, वह राजा होता है और जो उससे पराजित हो जाता है, वह दास बन जाता है। मान्धाता! यदि तुम चिरकालतक राजसिंहासन पर विराजमान रहना चाहते हो तो ऐसा बर्ताव करो, जिससे तुम्हारे द्धारा दर्प और अधर्म का सेवन न हो। मतवाले, प्रमादी बालक तथा विशेषतः पागलों से बचो। उनके निकट-सम्पर्क से भी दूर रहो और यदि वे एक साथ रहकर सेवा करना चाहें तो उनकी उस सेवा से भी सर्वथा बचे रहो। इसी तरह जिसको एक बार कैद किया हो, उस मन्त्री से, विशेषतः परायी स्त्रियों से, उँचे -नीचे और दुर्गम पर्वत से तथा हाथी, घोडे़ और सर्पों से राजा को बचकर रहना चाहिये। इनकी ओर से सदा सावधान रहे और रात में घूमना-फिरना छोड़ दे। कुपणता, अभिमान, दम्भ और क्रोध का भी सर्वथा परित्याग कर दे। अपरिचित स्त्रियों, बाँझ स्त्रियों, वेश्याओं, परायी स्त्रियों तथा कुमारी कन्याओं के साथ राजा मैथुन न करे। जब राजा धर्म की ओर से प्रमाद करता है, तब वर्णसंकरता के कारण उत्तम कुलों में पापी और राक्षस जन्म लेते हैं। नंपूसक, काने, लँगडे़, लूले, गूँगे तथा बुद्धिहीन बालकों की उत्पत्ति होती है। ये तथा और भी बहुत-सी कुत्सित संतानें जन्म लेती हैं। इसलिये राजा को विशेष रूप से धर्मपरायण एवं सावधान होकर प्रजा के हितसाधन में तत्पर रहना चाहिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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