महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 91 श्लोक 50-60

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एकनवतितम (91) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 50-60 का हिन्दी अनुवाद

तुम्हें रूपवान्, कुलीन, कार्यदक्ष, राजभक्त एवं बहुत मन्त्रियों के साथ रहकर तापसों और आश्रम-वासियों की भी सम्पूर्ण बुद्धियों (सारे विचारों) की परीक्षा करनी चाहिये। ऐसा करने से तुमको सम्पूर्ण भूतों के परम धर्म का ज्ञान हो जायगा; फिर स्वदेश में रहो या परदेश में, कहीं भी तुम्हारा धर्म नष्ट नहीं होगा। इस तरह विचार करने से अर्थ और काम की अपेक्षा धर्म ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है। धर्मात्मा पुरूष इहलोक में और परलोक में भी सुख भोगता है। यदि मनुष्यों का सम्मान किया जाय तो वे सम्मनदाता के हित के लिये अपने पुत्रों और स्त्रियों को भी छोड़ देते हैं। समस्त प्राणियों को अपने पक्षमें मिलाये रखना, दान देना, मीठे वचन बोलना, प्रमादका त्याग करना तथा बाहर और भीतर से पवित्र रहना-ये राजाका ऐश्वर्य बढ़ाने वाले बहुत बड़े साधन हैं। मान्धाता! तुम इन सब बातों की ओर से कभी प्रमाद न करना। राजा को सदा सावधान रहना चाहिये। वह शत्रु का तथा अपना भी छिद्र देखे और यह प्रयत्न करे कि शत्रु मेरा छिद्र अच्छी तरह न देखने पाये; परंतु यदि शत्रु के छिद्रों (दुर्बलताओं) का पता लग जाय तो वह उस पर चढ़ाई कर दे। इन्द्र, यम, वरूण तथा सम्पूर्ण राजर्षियों का यही बर्ताव है, तुम भी इसका निरन्तर पालन करो। पुरूषप्रवर महाराज ! राजर्षियों द्वारा सेवित उस आचार का तुम पालन करो और शीघ्र ही प्रकाशयुक्त दिव्य मार्ग का आश्रय लो। भारत ![१] महातेजस्वी देवता, ऋषि, पितर और गन्धर्व इहलोक और परलोकमें भी धर्मपरायण राजा के यशका गान करते रहते हैं। भीष्मजी कहते हैं-भरतनन्दन! उतथ्य के इस प्रकार उपदेश देने पर मान्धाता ने निःशंक होकर उनकी आज्ञा का पालन किया और सारी पृथ्वी का एकछत्र राज्य पा लिया। पृथ्वीनाथ! मान्धाता की ही भाँति तुम भी अच्छी तरह धर्म का पालन करते हुए इस पृथ्वी की रक्षा करो; फिर तुम भी स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त कर लोगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में उतथ्यगीताविषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उतथ्य ने राजा मान्धाता को उपदेश दिया है और मान्धाता सूर्यवंशी नरेश थे, इसलिये उनके उद्देश्य से भारत सम्बोधन पद यद्यपि उचित नहीं है तथापि यह प्रसंग भीष्मजीन युधिष्ठिर को सुनाते है; अतः यह समझना चाहिये कि युधिष्ठिर के उद्देश्य से उन्होंने यहाँ भारत विशेषण का प्रयोग किया है।

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