चतुर्नवतितम (94) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्नवतितम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
- वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिये हितकर बर्ताव
वामदेवजी कहते हैं- नरेश्वर ! राजा युद्धके सिवा किसी और ही उपायसे पहले अपनी विजय-वृद्धि की चेष्टा करे; युद्ध से जो विजय प्राप्त होती है, उसे निम्न श्रेणी की बताया गया है। यदि राज्यकी जड़ मजबूत न हो तो राजाको अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति-अनधिकृत देशों पर अधिकार की इच्छा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि जिसके मूल में ही दुर्बलता है; उस राजा को वैसा लाभ होना सम्भव नहीं है। थ्जस राजाका देश समृद्धिशाली, धनधान्यसे सम्पन्न, राजा को प्रिय मानने वाले मनुष्यों से परिपूर्ण और हृष्ट-पुष्ट मन्त्रियों से सुशोभित है, उसी की जड़ मजबूत समझनी चाहिये। जिसके सैनिक संतुष्ट, राजा के द्वारा सान्त्वना प्राप्त और शत्रुओं को धोखा देने में चतुर हों, वह भूपाल थोड़ी-सी सेना के द्वारा भी पृथ्वी पर विजय पा लेता है। जिस स्थान पर शत्रुपक्ष की सेना अधिक प्रबल हो, वहाँ पहले सामनीति का ही प्रयोग करना उचित है। यदि उससे काम न चले तो धन या उपहार देने की नीति को अपनाना चाहिये। इस दाननीति के मूलमें भी यदि भेदनीति का समावेश हो अर्थात् शत्रुओंमें फूट डालने की चेष्टा की जा रही हो तो उसे उत्तम माना गया है। जब राजा साम, दान और भेद-तीनों का प्रयोग निष्फल देखे, तब शत्रु की दुर्बलता का पता लगाकर दूसरा कोई विचार मन में न लाते हुए दण्डनीति का ही प्रयोग करे-शत्रु केे साथ युद्ध छेड़ दे। जिसके नगर और जनपद में रहनेवाले लोग समस्त प्राणियों पर द या करनेवाले और धन-धान्य से सम्पन्न होते हैं, उस राजाकी जड़ मजबूत समझी जाती है। ये नगर और जनपदके लोग राष्ट्र के कार्य की सिद्धि करने वाले और उसके विरोधी भी होती हैं। उद्दण्ड और विनयशील भी होते हैं। उन सबको प्रयत्नपूर्वक अपने वश में करना चाहिये। चाण्डाल, म्लेच्छ, पाखण्डी, शास्त्र-विरूद्ध कर्म करने वाले, बलवान्, सभी आश्रमों के निवासी तथा गायक और नर्तक-इन सबको प्रयत्नपूर्वक वश में करना चाहिये। जिसके राज्य में ये सब लोग धन-धान्य की वृद्धि करने वाले और आय बढ़ाने में सहायक होकर रहते हैं, उस राजाकी जड़ मजबूत समझी जाती है। बुद्धिमान् राजा जब अपने प्रताप को प्रकाशित करने का उपयुक्त अवसर समझे, तभी दूसरे का राज्य और धन लेने की चेष्टा करे। जिसके वैभव-भोग दिनोंदिन बढ़ रहे हों, जो सब प्राणियों पर दया रखता हो, काम करने में फुर्तीला हो और अपने शरीर की रक्षाका ध्यान रखता हो, उस राजा की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। जो अच्छा बर्ताव करने वाले स्वजनों के प्रति मिथ्या व्यवहार करता है, वह इस बर्ताव द्वारा कुल्हाड़ी से जंगल की भाँति अपने आपका ही उच्छेद कर डालता है। यदि राजा कभी किसी द्वेष करनेवाले को दण्ड न दे तो उससे द्वेष करने वालों की कमी नहीं होती है; परंतु जो क्रोध को मारने की कला जानता है, उसका कोई द्वेषी नहीं रहता है। जिसे श्रेष्ठ पुरूष बुरा समझते हों, बुद्धिमान् राजा वैसा कर्म कभी न करे। जिस कार्य को सबके लिये कल्याणकारी समझे, उसीमें अपने आपको लगावे। जो राजा अपना कर्तव्य पूर्ण करके ही सुख का अनुभव करना चाहता है, उसका न तो दूसरे लोग अनादर करते हैं और न वह स्वयं ही संतप्त होता है। जो राजा प्रजा के प्रति ऐसा बर्ताव करता है, वह इहलोक और परलोक दोनों को जीतकर विजय में प्रतिष्ठित होता है। भीष्मजी कहते हैं-राजन् ! वामदेवजी के इस प्रकार उपदेश देने पर राजा वसुमना सब कार्य उसी प्रकार करने लगे। यदि तुम भी ऐसा ही आचरण करोगे तो निःसंदेह लोक और परलोक दोनों सुधार लोगे।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में वामदेव गीताविषयक चैरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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