महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 95 श्लोक 1-15

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पन्चनवतितम (95) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन

युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! यदि कोई क्षत्रिय राजा दूसरे क्षत्रिय रनेशपर युद्धमें विजय पाना चाहे तो उसे अपनी जीत के लिये किस धर्मका पालन करना चाहिये ? इस समय यही मेरा आपसे प्रश्न है, आप मुझे इसका उत्तर दीजिये। भीष्मजीने कहा- राजन् ! पहले राजा सहायकों के साथ अथवा बिना सहायकोंके ही जिसपर विजय पाना चाहता है, उस राज्यमें जाकर वहाँके लोगोंसे कहे कि मैं तुम्हारा राजा हूँ और सदा तूमलोगोंकी रक्षा करूँगा, मुझे धर्मके अनुसार कर दो अथवा मेरे साथ युद्ध करो। उसके ऐसा कहनेपर यदि वे उस समागत नरेशका अपने राजाके रूपमें वरण कर लें तो सबकी कुशल हो। नरेश्वर ! यदि वे क्षत्रिय न होकर भी किसी प्रकार विरोध करें तो वर्ण-विपरीत कर्म में लगे हुए उन सब मनुष्योंका सभी उपायों से दमन करना चाहिये। यदि उस देशका क्षत्रिय शस्त्रहीन हो और अपनी रक्षा करने में भी अपनेको अत्यन्त असमर्थ मानता हो तो वहाँका क्षत्रियेतर मनुष्य भी देशकी रक्षाके लिये शस्त्र ग्रहण कर सकता है। युधिष्ठिरने पूछा- पितामह ! यदि कोई क्षत्रिय राजा दूसरे क्षत्रिय राजा पर चढ़ाई कर दे तो उस समय उसे उसके साथ किस प्रकार युद्ध करना चाहिये यह मुझे बताइये। भीष्मजीने कहा- राजन् ! जो कवच बाँधे हुए न हो, उस क्षत्रियके साथ रणभूमि में युद्ध नहीं करना चाहिये। एक योद्धा दूसरे एकाकी योद्धा से कहे ‘तुम मुझपर शस्त्र छोड़ो। मैं भी तुम पर प्रहार करता हूँ’। यदि वह कवच बाँधकर सामने आ जाय तो स्वयं भी कवच धारण कर ले। यदि विपक्षी सेना के साथ आवे तो स्वयं भी सेनाके साथ आकर शत्रु की ललकारे। यदि वह छलसे युद्ध करे तो स्वयं भी उसी रीति से उसका सामना करे और यदि वह धर्म से युद्ध आरम्भ करे तो धर्मसे ही उसका सामना करना चाहिये। घोडे़ के द्वारा रथी पर आक्रमण न करे। रथी का सामना रथी को ही करना चाहिये। यदि शत्रु किसी संकटमें पड़ जाय तो उसपर प्रहार न करे। डरे और पराजित हुए शत्रु पर भी कभी प्रहार नहीं करना चाहिये। युद्धमें विषलिप्त और कर्णी बाण का प्रयोग नहीं करना चाहिये। ये दुष्टोंके अस्त्र हैं। यथार्थ रीतिसे ही युद्ध करना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति युद्धमें किसीका वध करना चाहता हो तो उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये (किंतु यथायोग्य प्रतीकार करना चाहिये)। जब श्रेष्ठ पुरूषोंमें परस्पर भेद होनेसे कोई श्रेष्ठ पुरूष संकटमें पड़ जाय, तब उसपर प्रहार नहीं करना चाहिये। जो बलहीन और संतानहीन हो, उसपर तो किसी प्रकार भी आघात न करे। जिसके शस्त्र टूट गये हों, जो विपत्तिमें पड़ गया हो, जिसके धनुषकी डोरी कट गयी हो तथा जिसके वाहन मार डाले गये हों, ऐसे मनुष्यपर भी प्रहार न करे। ऐसा पुरूष यदि अपने राज्य में या अधिकारमें आ जाय तो उसके घावोंकी चिकित्सा करानी चाहिये अथवा उसे उसके घर पहुँचा देना चाहिये। किंतु जिसके कोई घाव न हो, उसे न छोडे़। यह सनातनधर्म है। अतः धर्मके अनुसार युद्ध करना चाहिये, यह स्वायम्भुव कथन है। सज्जनोंका धर्म सदा सत्पुरूषोंमें ही रहा है। अतः उसका आश्रम लेकर उसे नष्ट न करे। धर्मयुद्धमें तत्पर हुआ जो क्षत्रिय अधर्मसे विजय पाता है, छल-कपटको जीविकाका साधन बनानेवाला वह पापी स्वयं ही अपना नाश करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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