महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 134 श्लोक 18-33

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:४१, १५ जुलाई २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चतुस्त्रिंशदधिकशततम (134) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: चतुस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद

यदि पहले के समान आज भी मैं तेरे यश कि वृद्धि करनेवाले प्रशंसनीय कर्मों को नहीं देखूँगी तो मेरे हृदय को क्या शांति मिलेगी ? यदि किसी ब्राह्मण के माँगने पर मैं उसकी अभीष्ट वस्तु के लिए ‘नाहीं’ कह दूँगी तो उसी समय मेरा हृदय विदीर्ण हो जाएगा । आजतक मैंने या मेरे पतिदेव ने किसी ब्राह्मण से नाहीं नहीं की है। हम सदा लोगों के आश्रयदाता रहे हैं, दूसरों के आश्रित कभी नहीं रहे, परंतु अब यदि दूसरे का आश्रय लेकर जीवन धारण करना पड़े तो मैं ऐसे जीवन का परित्याग ही कर दूँगी । बेटा ! अपार समुद्र में डूबते हुए हम लोगों को तू पार लगानेवाला हो । नौका विहीन अगाध जलराशि (महान संकट) में तू हमारे लिए नौका हो जा । हमारे लिए कोई स्थान नहीं रह गया है, तू स्थान बन जा और हम मृतप्राय हो रहे हैं, तू हमें जीवनदान कर। यदि तुझे जीवन के प्रति अधिक आसक्ति न हो तो तू अपने सभी शत्रुओं को परास्त कर सकता है और यदि इस प्रकार विषादग्रस्त एवं हतोत्साह होकर ऐसी कायरों की सी वृत्ति अपना रहा है तो तुझे इस पापपूर्ण जीविका को त्याग देना चाहिए।

एक शत्रु का वध करने से ही शूरवीर पुरुष सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हो जाता है । देवराज इन्द्र केवल वृत्रासुर का वध करके ही ‘महेंद्र’ नाम से प्रसिद्ध हो गए । उन्हें रहने के लिए इन्द्र भवन प्राप्त हुआ और वे तीनों लोकों के अधीश्वर हो गए। वीर पुरुष युद्ध में अपना नाम सुनाकर, कवचधारी शत्रुओं को ललकारकर, सेना के अग्रभाग को खदेड़कर अथवा शत्रुपक्ष के किसी श्रेष्ठ पुरुष का वध करके जभी उत्तम युद्ध के द्वारा महान् यश को प्राप्त कर लेता है, तभी उसके शत्रु व्यथित होते और उसके सामने मस्तक झुकाते हैं। कायर मनुष्य विवश हो युद्ध में अपने शरीर का त्याग करके युद्धकुशल शूरवीर को सम्पूर्ण मनोरथों की पूर्ति करनेवाली अपनी समृद्धियों के द्वारा तृप्त करते हैं। जिसका भयानक रूप से पतन हुआ है, वह राज्य प्राप्त हो जाय या जीवन ही संकट में पड़ जाये, किसी भी दशा में अपने हाथ में आए हुए शत्रु को श्रेष्ठ पुरुष शेष नहीं रहने देते हैं। युद्ध को स्वर्गद्वार के सदृश उत्तम गति अथवा अमृत के सदृश राज्य की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग मानकर तू जलते हुए काठ की भांति शत्रुओं पर टूट पड़। राजन् ! तू युद्ध में शत्रुओं को मार और अपने धर्म का पालन कर । शत्रुओं का भय बढ़ानेवाले तुझ वीर पुत्र को मैं अत्यंत दीन और कायर के रूप में न देखूँ। मैं तुझे दीन से भी दीन के समान दयनीय अवस्था में पड़ा हुआ तथा शोकमग्न हुए अपने पक्ष के और गर्जन-तर्जन करते हुए शत्रुपक्ष के लोगों से घिरा हुआ नहीं देखना चाहती। तू सौवीर देश की कन्याओं (अपनी पत्नियों) के साथ हर्ष का अनुभव कर । पहले की भांति अपने धन की अधिकता के लिए गर्व कर । विपत्ति में पड़कर सिंधुदेशीय (शत्रु देश की) कन्याओं के वश में न हो जा। तू रूप, यौवन, विद्या और कुलीनता से सम्पन्न है, यशस्वी तथा लोक में विख्यात है । तुझ जैसा वीर पुरुष यदि पराक्रम के अवसर पर डर जाय, भार ढोने के समय बिना नथे हुए बैल के समान बैठ रहे या भाग जाय तो मैं इसे तेरा मरण ही समझती हूँ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख