पञ्चत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
विदुला और उसके पुत्र का संवाद – विदुला के द्वारा कार्य में सफलता प्राप्त करने तथा शत्रुवशीकरण के उपायों का निर्देश पुत्र बोला– माँ ! तेरा हृदय तो ऐसा जान पड़ता है, मानो काले लोहपिंड को ठोक-पीटकर बनाया गया हो । तू मेरी माता होकर भी इतनी निर्दय है । तेरी बुद्धि वीरों के समान है और तू सदा अमर्ष में भरी रहती है। अहो ! क्षत्रियों का आचार-व्यवहार कैसा आश्चर्यजनक है, जिसमें स्थित होकर तू मुझे इस प्रकार युद्ध में लगा रही है, मानो मैं दूसरे का बेटा होऊँ और तू दूसरे की माँ हो। मुझ इकलौते पुत्र से तू ऐसी निष्ठुर बातें कहे, आश्चर्य है ! मुझे न देखने पर यह सारी पृथ्वी भी तुझे मिल जाये तो इससे तुझे क्या सुख मिलेगा ? मैं विशेषत: तेरा प्रिय पुत्र यदि युद्ध में मारा जाऊँ तो तुझे आभूषणों से, भोग-सामग्रियों से तथा अपने जीवन से भी कौन सा सुख प्राप्त होगा ? माता बोली–तात संजय ! विद्वानों की सारी अवस्था भी धर्म और अर्थ के निमित्त ही होती है। उन्हीं दोनों की ओर दृष्टि रखकर मैंने भी तुझे युद्ध के लिए प्रेरित किया हिय। यह तेरे लिए दर्शनीय पराक्रम करके दिखाने का मुख्य समय प्राप्त हुआ है। ऐसे समय में भी यदि तू अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेगा और तुझसे जैसी संभावना थी, उसके विपरीत स्वभाव का परिचय देकर शत्रुओं के प्रति क्रूरतापूर्ण बर्ताव नहीं करेगा तो उस दशा में सब ओर तेरा अपयश फैल जाएगा । संजय ! ऐसे अवसर पर भी यदि मैं तुझे कुछ न कहूँ तो मेरा वह वात्सल्य गदही के स्नेह के समान शक्तिहीन तथा निरर्थक होगा । अत: वत्स ! साधु पुरुष जिसकी निंदा करते हैं और मूर्ख मनुष्य ही जिस पर चलते हैं, उस मार्ग को त्याग दे। प्रजा ने जिसका आश्रय ले रखा है, वह तो बड़ी भारी अविद्या ही है । तू तो मुझे तभी प्रिय हो सकता है, जब तेरा आचरण सत्पुरुषों के योग्य हो जाये धर्म, अर्थ और गुणों से युक्त, देवलोक तथा मनुष्यलोक में भी उपयोगी और सत्पुरुषों द्वारा आचरण में लाये हुए सत्कर्म से ही तू मेरा प्रिय हो सकता है, इसके विपरीत असत्कर्म से किसी प्रकार भी तू मुझे प्रिय नहीं हो सकता। बेटा ! जो इस प्रकार विनयशून्य एवं अशिक्षित पौत्र से हर्ष को प्राप्त होता है तथा उद्योगरहित, दुर्विनीत एवं दुर्बुद्धि पुत्र से सुख मानता है, उसका संतानोपादन व्यर्थ है, क्योंकि वे अयोग्य पुत्र-पौत्र पहले तो कर्म ही नहीं करते हैं और यदि करते हैं तो निंदित कर्म ही करते हैं, इससे वे अधम मनुष्य न तो इस लोक में सुख पाते हैं और न परलोक में ही। संजय ! इस लोक में युद्ध एवं विजय के लिए ही विधाता ने क्षत्रिय की सृष्टि की है । वह विजय प्राप्त करे या युद्ध में मारा जाये, सभी दशाओं में उसे इंद्रलोक की प्राप्ति होती है । पुण्यमय स्वर्गलोक के इंद्रभवन में भी वह सुख नहीं मिलता, जिसे क्षत्रिय वीर शत्रुओं को वश में करके सानंद अनुभव करता है। अतएव जो मनस्वी क्षत्रिय अनेक बार पराजित होकर क्रोध से दग्ध हो रहा हो, वह अवश्य ही विजय की इच्छा से शत्रुओं पर आक्रमण करे । फिर तो वह अपने शरीर का परित्याग करके अथवा शत्रु को मार गिराकर ही शांति लाभ करता है । इसके सिवा दूसरे किसी प्रकार से उसे कैसे शांति प्राप्त हो सकती है ?
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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