पञ्चत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद
विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध के लिए उद्यत होना। बुद्धिमान पुरुष इस जगत् में अत्यंत अल्पमात्रा में अप्रिय कि इच्छा करता है । लोक में जिसका प्रिय अल्प होता है, उसका अप्रिय भी निश्चय ही अल्प होगा। प्रिय के अभाव में मनुष्य को शोभा नहीं होती है । जैसे गंगा समुद्र में जाकर विलुप्त हो जाती है, उसी प्रकार वह अभावग्रस्त पुरुष भी निश्चय ही लुप्त हो जाता है। पुत्र ने कहा – माँ ! तुझे अपने मुख से ऐसा विचार नहीं व्यक्त करना चाहिए, अत: तू जड़ और मुक की भांति होकर मुझ अपने पुत्र को विशेष रूप से करुणापूर्ण दृष्टि से ही देखो। माता बोली - तेरे इस कथन से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है । तू इस प्रकार विचार तो करता है । मुझे मेरे कर्तव्य ( पुत्र पर दयादृष्टि करने ) की प्रेरणा दे रहा है, इसलिए मैं भी तुझे बार-बार तेरा कर्तव्य सुझा रहीं हूँ। जब तू सिंधुदेश के समस्त योद्धाओं को मारकर आयेगा, उस समय मैं तेरा स्वागत करूंगी । मुझे विश्वास है कि बड़े कष्ट से प्राप्त होनेवाली तेरी विजय मैं अवश्य देखूँगी। पुत्र बोला – माँ ! मेरे पास न तो खजाना है और न सहायता करने वाले सैनिक ही हैं, फिर मुझे विजयरूप अभीष्ट की सिद्धि कैसे प्राप्त होगी ? अपनी इस दारुण अवस्था के विषय में स्वयं ही विचार करके मैंने राज्य की ओर से अपना अनुराग उसी प्रकार दूर हटा लिया है, जैसे स्वर्ग की ओर से पापी का भाव हट जाता है । क्या तू ऐसा कोई उपाय देख रही है, जिससे मैं विजय पा सकूँ। परिपक्व बुद्धि वाली माँ ! मेरे इस प्रश्न के अनुसार तू कोई उत्तम उपाय बता दे । मैं तेरे सम्पूर्ण आदेशों का यथोचित रीति से पालन करूँगा।
माता बोली - बेटा ! पहले की सम्पत्ति नष्ट हो गई है – यह सोचकर तुझे अपनी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि धन-वैभव तो नष्ट होकर पुन: प्राप्त हो जाते हैं और प्राप्त होकर भी फिर नष्ट हो जाते हैं, अत: बुद्धिहीन पुरुषों को ईर्ष्यावश ही धन की प्राप्ति के लिए कर्मों का आरंभ नहीं करना चाहिए। तात ! सभी कर्मों के फल में सदा अनित्यता रहती है– कभी उनका फल मिलता है और कभी नहीं भी मिलता है । इस अनित्यता को जानते हुए भी बुद्धिमान् पुरुष कर्म करते हैं और वे कभी असफल होते हैं, तो कभी असफल भी हो जाते हैं। परंतु जो कर्मों का आरंभ ही नहीं करते, वे तो कभी अपने अभीष्ट की सिद्धि में सफल नहीं होते, अत: कर्मों को छोड़कर निश्चेष्ट बैठने का यह एक ही परिणाम होता है कि मनुष्यों को कभी अभीष्ट मनोरथ की प्राप्ति नहीं हो सकती । परंतु कर्मों में उत्साहपूर्वक लगे रहनेपर तो दोनों प्रकार के परिणामों कि संभावना रहती है– कर्मों का वांछनीय फल प्राप्त भी हो सकता है और नहीं भी। राजकुमार ! जिसे पहले से ही सभी पदार्थों की अनित्यता का ज्ञान होता है, वह ज्ञानी पुरुष अपने प्रतिकूल शत्रु कि उन्नति और अपनी अवनति से प्राप्त हुए दु:ख का विचार द्वारा निवारण कर सकता है। सफलता होगी ही, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास लेकर निरंतर विषादरहित होकर तुझे उठना, सजग होना और ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले कर्मों में लग जाना चाहिए।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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