पञ्चत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 30-40 का हिन्दी अनुवाद
वत्स ! देवताओं सहित ब्राह्मणों का पूजन तथा अन्यान्य मांगलिक कार्य सम्पन्न करके प्रत्येक कार्य का आरंभ करनेवाले बुद्धिमान राजा की शीघ्र उन्नति होती है । जैसे सूर्य अवश्य ही पूर्व दिशा का आश्रय ले उसे प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार राजलक्ष्मी पूर्वोक्त राजा को सब ओर से प्राप्त होकर उसे यश एवं तेज से सम्पन्न कर देती है। बेटा ! मैंने तुझे अनेक प्रकार के दृष्टांत, बहुत से उपाय और कितने ही उत्साहजनक वचन सुनाये हैं । लोक-वृतांत का भी बारंबार दिग्दर्शन कराया है । अब तू पुरुषार्थ कर । मैं तेरा पराक्रम देखूँगी। तुझे यहाँ अभीष्ट पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिए । जो लोग सिंधुराज पर कुपित हों, जिनके मन में धन का लोभ हो, जो सिंधुनरेश के आक्रमण से सर्वथा क्षीण हो गए हों, जिन्हें अपने बल और पौरुष पर गर्व हो तथा जो तेरे शत्रुओं द्वारा अपमानित हों उनसे बदला लेने के लिए होड़ लगाए बैठे हों, उन सबको तू सावधान होकर दान-मान के द्वारा अपने पक्ष में कर ले । इस प्रकार तू बड़े-से-बड़े समुदाय को फोड़ लेगा । ठीक उसी तरह, जैसे महान वेगशाली वायु वेगपूर्वक उठकर बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है। तू उन्हें अग्रिम वेतन दे दिया कर । प्रतिदिन प्रात:काल सोकर उठ जा और सबके साथ प्रिय वचन बोल। ऐसा करने से वे अवश्य तेरा प्रिय करेंगे और निश्चय ही तुझे अपना अगुआ बना लेंगे। शत्रु को ज्यों ही यह मालूम हो जाता है कि उसका विपक्षी प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करने के लिए तैयार है, तभी घर में रहने वाले सर्प की भाँति उसके भय से वह उद्विग्न हो उठता है। यदि शत्रु को पराक्राम संपन्न जानकर अपनी असमर्थता के कारण वश में न कर सकें तो उसे विश्वसनीय दूतों द्वारा साम एवं दान नीति का प्रयोग करके अनुकूल बना ले (जिससे वह आक्रमण न करके शांत बैठा रहे) । ऐसा करने से अंततोगत्वा उसका वशीकरण हो जाएगा। इस प्रकार शत्रु को शांत कर देने से निर्भय आश्रय प्राप्त होता है । उसे प्राप्त कर लेने पर युद्ध आदि में न फँसने के कारण अपने धन कि वृद्धि होती है। फिर धनसंपन्न राजा का बहुत से मित्र आश्रय लेते और उसकी सेवा करते हैं। इसके विपरीत जिसका धन नष्ट हो गया है, उसके मित्र और भाई-बंधु भी उसे त्याग देते हैं । उस पर विश्वास नहीं करते हैं तथा उसके जैसे लोगों कि निंदा भी करते हैं ॥ जो शत्रु को सहायक बनाकर उसका विश्वास करता है, वह राज्य प्राप्त कर लेगा, इसकी कभी संभावना ही नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला का अपने पुत्र को उपदेश विषयक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख