गोविंद, प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ

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लेख सूचना
गोविंद, प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 41
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक विशुद्धानंद पाठक


गोविंद, प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ मान्यखेट में अपनी राजधानी बनाकर दक्षिणपथ पर शासन करनेवाले जिन राष्ट्रकूट राजाओं ने सर्वप्रथम अपने वंश की वास्तविक राजनीतिक प्रतिष्ठा स्थापित की, उनमें प्रमुख थे दंतिदुर्ग और कृष्ण प्रथम। परंतु उनके पूर्व उस राजकुल में अन्य अनेक सामंत राजा हो चुके थे। गोविंद प्रथम उन्हीं में से एक था। संभवत: राष्ट्रकूटों की किसी अन्य सामान्य शाखा में भी गोविंद नाम का कोई सरदार हो चुका था। इसका आधार है विभिन्न वंशावलियों में गोविंद नाम की क्रम से दो बार प्राप्ति। परंतु मुख्य शाखा का गोविंद (प्रथम) सामंत उपाधियों को धारण करता था, जो दूसरे गोविंद के बारे में नहीं कहा जा सकता। डा. अल्तेकर उसका संभावित काल 6९० ई. से ७1० ई. तक निश्चित करते हैं। कुछ राष्ट्रकूट अभिलेखों से उसके शैव होने की बात ज्ञात होती है।

गोविंद द्वितीय कृष्ण प्रथम का पुत्र था और ७७3- 4 ई. में कभी राजगद्दी का उत्तराधिकारी हुआ। अपने पिता के शासनकाल में भी वह प्रशासन से संबद्ध रहा और उसके अंतिम दिनों में युवराज नियुक्त कर दिया गया था। युवराज की अवस्था में ही उसने वेंग के पूर्वी चालुक्य शासक विष्णुवर्धन चतुर्थ को एक लड़ाई में हराया था। वह अच्छा घुड़सवार और योग्य सैनिक था। राजा होकर उसने प्रभूतवर्ष और विक्रमावलोक की उपाधियाँ धारण कीं। परंतु शासक के रूप में वह बड़ा निकम्मा निकला और भोगविलास में अधिक रुचि रखने लगा। प्रशासन और वंश की प्रतिष्ठा के विस्तार की चिंता उसने छोड़ दी, यहाँ तक कि प्रशासन का सारा उत्तरदायित्व उसने अपने छोटे भाई ध्रुव के हाथों में छोड़ दिया। स्वाभाविक था कि ध्रुव इस परिस्थिति से लाभ उठाता। अपने बड़े भाई और राजा की आज्ञाओं को प्राप्त किए बिना भी वह स्वयं भूमि आदि का दान देने लगा और अनेक दानपत्र अपने नाम से उसने प्रचारित किए। ध्रुव की इन प्रवृत्तियों से गोविंद द्वितीय का उसके प्रति संदेह उत्पन्न हो जाय, यह कुछ अप्रत्याशित था और वह अपने पद से हटा दिया गया। दोनों भाइयों के बढ़ते हुए मनोमालिन्य का प्रभाव सांमतों में बढ़ती हुई स्वतंत्रता की भावना पर हुआ। ध्रुव ने इस परिस्थिति से लाभ उठाया और साम्राज्य तथा वंश की प्रतिष्ठा की रक्षा का बहाना बनाकर उसने खुला विद्रोह कर दिया। गोविंद द्वितीय ने कांची गंगवाड़ी, वेंगी और मालवा के राजाओं से सहायता माँगी, परंतु उनकी सैनिक सहायता के होते हुए भी ध्रुव सफल रहा। गोविंद द्वितीय सैनिक संघ और ध्रुव की सेनाओं के बीच युद्ध कहाँ हुआ, यह निश्चित नहीं है, परंतु वह था निर्णायक और उसमें ध्रुव की विजय हुई। विजय के बद उसने अपने भाई का क्या किया, यह भी ज्ञात नहीं है, परंतु उसकी राजगद्दी तो उसने छीन ही ली और संभवत: ७८० ई. में उसपर स्वयं आसीन भी हो गया।

ध्रुव ने 13 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन करने के बाद संभवत: अपने जीवनकाल में अपने तीसरे और योग्यतम पुत्र गोविंद (तृतीय) को ७९3 ई. के आसपास राज्याभिषिक्त कर दिया। उसके पूर्व गोविंद का युवराजपद पर विधिवत्‌ अभिषेक हो चुका था। इसका कारण था एक ओर ध्रुव की अपने गोविंद को राज्याधिकारी बनाने की इच्छा और दूसरी ओर उसका यह भय कि उसके बड़े लड़के अपना अधिकार पाने के लिये उसकी मृत्यु के बाद कहीं उत्तराधिकार का युद्ध न आरंभ कर दें। साथ ही ध्रुव ने अपने अन्य पुत्रों को अपने साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों का प्रांतीय शासक नियुक्त कर दिया। परंतु गोविंद तृतीय की सैनिक योग्यता और राजनीतिक दक्षता मात्र से प्रभावित होकर अथवा अपने पिता के द्वारा उसकी राजगद्दी का उत्तराधिकार दे दिये जाने से ही संतुष्ट होकर वे भी चुप बैठनेवाले न थे। गोविंद तृतीय के सबसे बड़े भाई स्तंभ ने अपने पिता ध्रुव के मरने के बाद उत्तराधिकार के लिये अपनी शक्ति आजमाने की ठानी। उसे कुछ सामंत राजाओं की भी शह प्राप्त हो गई, जिनकी संख्या कुछ राष्ट्रकूट अभिलेखों में 12 बताई गई है। पहले तो गोविंद तृतीय ने अपने अन्य भाइयों के तरह स्तंभ को भी प्रसन्न करना चाहा, पर उसे कोई सफलता न मिली और दोनों में युद्ध होकर ही रहा। गोविंद के छोटे भाई इंद्र ने उसकी मदद की। युद्ध में स्तंभ की हार हुई परंतु गोविंद ने उसके प्रति नरमी की ही नीति अपनाई और उसे अपनी ओर से गंग प्रदेश का प्रशासक नियुक्त कर दिया।

राजगद्दी पर सुस्थित होकर गोविंद ने विद्रोही सामंतों को दबाने और अपनी अधिराज्यशक्ति के विस्तार की ओर ध्यान दिया। गंग शासक शिवभार राष्ट्रकूटों के द्वारा कैद किया जा चुका था पर कैद से मुक्ति पाकर उसने स्वतंत्रता की प्रवृत्ति दिखाई और राष्ट्रकूट अधिसत्ता को उठा फेंकने की कोशिश की। गोविंद ने उसे तुरंत परास्त किया, वह पुन: बंदी बना और गंगवाड़ी को राष्ट्रकूट साम्राज्य के भीतर मिला लिया गया। स्तंभ पुन: वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया गया। तत्पश्चात्‌ गोविंद ने काँची के शासक को हराया पर उसकी वह विजय स्थायी न थी और थोड़े ही दिनों बाद उसेकांची पर दूसरा अभियान करना पड़ा। पुन: उसने वेंगी के पूर्वी चालुक्य शासक विजयादित्य पर आक्रमण कर उसको अपनी भृत्योपयुक्त सेवा के लिये विवश किया। दक्षिण के प्राय: समस्त राज्यों पर अपना आधिपत्य जमा लेने के बाद गोविंद ने उत्तर की राजनीति को प्रभावित करना शुरू कर दिया। उसके पिता ध्रुव ने गुर्जर प्रतिहार शासक वत्सराज और पालराज धर्मपाल दोनों ही को परास्त कर उत्तर भारत की दिग्विजय की थी। परंतु उसके बाद उत्तर भारतीय रंगमंच पर अनेक नए दृश्य उपस्थित हुए थे। धर्मपाल ने चक्रायुध को अपने नामांकित और करद के रूप में कान्यकुब्ज की गद्दी पर बिठाने में सफलता पा ली थी, परंतु वत्सराज के उत्तराधिकारी नागभट्ट द्वितीय ने तुंरत पासा पलट दिया और कन्नौज का स्वामी बन गया। ऐसी ही परस्थितियों में गोविंद तृतीय ने उत्तर भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप किया और अपने विजयी अभियान प्रारंभ कर दिए। कुशल राजनीतिज्ञ और दक्ष सेनापति के अनुरूप उन अभियानों के पूर्व अपने पार्श्वों की सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध कर लिया था। उसी नीति में उसने इंद्र को मालवा और गुजरात में गुर्जर प्रतिहारों के किसी आकस्मिक बढ़ाव को रोकने के लिय रख छोड़ा पश्चात्‌ नागभट्ट और गोविंद के बीच कहीं बुंदेलखंड में युद्ध हुआ जहाँ गुर्जर प्रतिहार सेनाओं को मुँहकी खानी पड़ी और नागभट्ट को स्वयं अपनी रक्षा के लिये किसी अज्ञात स्थान की शरण लेनी पड़ी। तत्पश्चात्‌ गोविंद की सेनाएँ हिमालय की ओर बढ़ीं और कहीं रास्ते में धर्मपाल और चक्रायुध ने भी उसकी अधीनता मान ली। लौटते समय भी गोविंद की सेनाओं ने दक्षिण पूर्वी मध्यभारत एवं बंगाल तथा उड़ीसा के अनेक क्षेत्रों को जीता। परंतु गोविंद का सारा उत्तर भारतीय अभियान दिग्विजय मात्र था और उसका राष्ट्रकूटों की सैनिक प्रतिष्ठा की वृद्धि के अतिरिक्त कोई विशेष प्रभाव न हुआ। उससे राष्ट्रकूट साम्राज्य सेना की उत्तर में कोई वृद्धि न हुई। इसका मुख्य करण दूरी थी। उसके उन अभियानों का समय अब प्राय: ८००-८०2 ई. के बीच माना जाता है।

उत्तर भारतीय अभियानों से निवृत्त होकर गोविंद ने पुन: एक बार दक्षिण में अपनी सैनिक शक्तियों का प्रदर्शन किया। कारण था उधर के कुछ शासकों में स्वतंत्रता की भावना का उदय। परंतु उन्हें दबाने के पूर्व उसने पश्चिमी भारत में भड़ौच की ओर प्रयाण किया था, जहाँ श्रीभवन (आधुनिक सरभोन) के राजा ने उसका स्वागत किया। श्रीभवन से वह दक्षिण की ओर बढ़ा। गंगवाड़ी, केरल, पांड्य, चोल और कांची के राजाओं न उसके विरुद्ध एक सैनिक संघ की स्थापना कर ली थी परंतु युद्ध में वे सभी हार गए और उनके असंख्य सैनिक खेत रहे। गोविंद की सेनाओं ने कांची पर कब्जा कर लिया और पांड्य तथा चोल क्षेत्रों को रौंदा। गोविंद की सैनिक सफलताआंे से सिंहल का राजा भयभीत हो उठा और उसने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

स्पष्ट है कि गोविंद तृतीय राष्ट्रकूटों में अत्यधिक योग्य और सफल शासक हुआ और वह अपने समय की दक्षिण तथा उत्तर भारतीय राजनीति को समान रूप से प्रभावित करता रहा। सैनिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से उसे समसामयिक भारत का सर्वप्रमुख शासक कहा जा सकता है। उसने अपने समय में राष्ट्रकूट राजवंश की सबसे अधिक श्रीवृद्धि की और उसकी सफलताओं के पीछे उसकी निजी वीरता, कूटनीतिज्ञता और संघटनशक्ति भरपूर मात्रा में लगी हुई थी। इस प्रकार लगभग 2०- 21 वर्षों तक अत्यंत योग्यता और सफलतापूर्वक शासन करने के बाद ८14 ई. में गोविंद तृतीय की मृत्यु हो गई।

गोविंद चतुर्थ इंद्र तृतीय का द्वितीय पुत्र था और अपने बड़े भाई अमोघवर्ष द्वितीय को राजगद्दी से हटा एवं मारकर राष्ट्रकूट की राजगद्दी पर बैठा था। इस घटना के ठीक समय के बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।सिंहासनारोहण के समय वह लगभग 2०- 25 वर्षों का नवजवान था। परंतु दुर्भाग्यवश उसकी प्रवृत्ति भोगविलास में अधिक थी। अपने सौंदर्य और जवानी को उसने नाच, गान और इंद्रियभोग में लगाया और राजकाज की चिंता बिलकुल ही छोड़ दी। जनता और राष्ट्रकूट साम्राज्य के शुभचितंक सांमतों को इस बात से बड़ी चिंता हुई और सबने उसके चचा अमोघवर्ष (तृतीय) से उससे मुक्ति दिलाने क आग्रह किया। अमोघवर्ष ने स्वयं उसके विरुद्ध योजनाओं का प्रारंभ किया हो, ऐसा नहीं लगता, परंतु अपने भतजे (गोविंद चतुर्थ) की बदनामी और अन्य सारी परिस्थितियों को अपने अनुरूप पाकर उसने गोविंद को गद्दी से हटा दिया। इस कार्य में उसे अपने संबंधी चेदिराज से सहायत मिली। उसका निजी व्यक्तित्व और सुचरित्र भी उसके पक्ष में था और ९36 के आसपास गोविंद चतुर्थ को अपदस्थ कर उसने गद्दी ले ली।


टीका टिप्पणी और संदर्भ