श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 38-42
द्वादश स्कन्ध: दशमोऽध्यायः (10)
सूतजी कहते हैं—शौनकजी! इस प्रकार त्रिलोचन भगवान् शंकर मार्कण्डेय मुनि को वर देकर भगवती पार्वती से मार्कण्डेय मुनि की तपस्या और उनके प्रलय सम्बन्धी अनुभवों का वर्णन करते हुए वहाँ से चले गये । भृगुवंश शिरोमणि मार्कण्डेय मुनि को उनके महायोग का परम फल प्राप्त हो गया। वे भगवान् के अनन्य प्रेमी हो गये। अब भी वे भक्तिभाव भरित ह्रदय से पृथ्वी पर विचरण किया करते हैं । परम ज्ञान सम्पन्न मार्कण्डेय मुनि ने भगवान् की योग माया जिस अद्भुत लीला का अनुभव किया था, वह मैंने आप लोगों को सुना दिया । शौनकजी! यह जो मार्कजी ने अनेक कल्पों का—सृष्टि-प्रलयों का अनुभव किया, वह भगवान् की माया का ही वैभव था, तात्कालिक था और उन्हीं के लिये था, सर्वसाधारण के लिये नहीं। कोई-कोई इस माया की रचना को न जानकर अनादि-काल से बार-बार होने वाले सृष्टि-प्रलय ही इसको भी बतलाते हैं। (इसलिये आपको यह शंका नहीं करनी चाहिये कि इसी कल्प के हमारे पूर्वज मार्कजी की आयु इतनी लम्बी कैसे हो गयी ?) । भृगुवंशशिरोमणे! मैंने आपको यह जो मार्कण्डेय-चरित्र सुनाया है, वह भगवान् चक्रपाणि के प्रभाव और महिमा से भरपूर है। जो इसका श्रवण एवं कीर्तन करते हैं, वे दोनों ही कर्म-वासनाओं के कारण प्राप्त होने वाले आवागमन के चक्कर से सर्वदा के लिये छूट जाते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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