षट्-त्रिंशदधिकशततम (136) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
महाभारत उद्योग पर्व: षट्-त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 15-22 का हिन्दी अनुवाद
तेरे ये अमृत के समान वचन बड़ी कठिनाई से सुनने को मिले थे । उन्हें सुनकर मैं तृप्त नहीं होता था । यह देखो, अब में शत्रुओं का दमन और विजय की प्राप्ति करने के लिए बंधु-बांधवों के साथ उद्योग कर रहा हूँ। कुंती कहती है - श्रीकृष्ण ! माता के वाग्बाणों से बिंधकर और तिरस्कृत होकर चाबुक की मार खाये हुए अच्छे घोड़ों के समान संजय ने माता के उस समस्त उपदेश को यथावत रूप से पालन किया। यह उत्तम उपाख्यान वीरों के लिए अत्यंत उत्साहवर्धक और कायरों के लिए भयंकर है । यदि कोई राजा शत्रु से पीड़ित होकर दुखी एवं हताश हो रहा हो तो मंत्री को चाहिए कि उसे यह प्रसंग सुनाए। यह जय नामक इतिहास है । विजय की इच्छा रखने वाले पुरुष को इसका श्रवण करना चाहिए । इसे सुनकर युद्ध में जाने वाला राजा शीघ्र ही पृथ्वी पर विजय पाता और शत्रुओं को रौंद डालता है। यह आख्यान पुत्र की प्राप्ति कराने वाला है तथा साधारण पुरुष में वीर भाव उत्पन्न करने वाला है । यदि गर्भवती स्त्री इसे बारंबार सुने तो वह निश्चय ही वीर पुत्र को जन्म देती है। इसे सुनकर प्रत्येक क्षत्राणी विद्याशूर, तप:शूर, दानशूर, तपस्वी, ब्राह्मी शोभा से सम्पन्न, साधुवाद के योग्य, तेजस्वी, बलवान्, परम सौभाग्यशाली, महारथी, धैर्यवान, दुर्धर्ष विजयी, किसी से भी पराजित न होने वाला, दुष्टों का दमन करने वाला, धर्मात्माओं के रक्षक तथा सत्या-पराक्रमी वीर पुत्र को उत्पन्न करती है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला के द्वारा पुत्र को दिये जानेवाले उपदेश की समाप्ति विषयक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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