महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 100 श्लोक 32-50

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शततम (100) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: शततम अध्याय: श्लोक 32-50 का हिन्दी अनुवाद

तत्पश्चात् मुख्य-मुख्य वीरोंको एमत्र करके यह प्रतिज्ञा करावे कि हम संग्राममें विजय प्राप्त करनेके लिये प्राण रहते एक-दूसरेका साथ नहीं छोड़ेंगे। जो लोग डरपोक हों, वे यहीसे लौट जायँ और जो लोग भयानक संग्राम करते हुए शत्रुपक्षके प्रधान वीरका वध कर सकें, वे ही यहाँ ठहरें। क्योंकि ऐसे डरपोंक मनुष्य घमासान युद्धमें शत्रुओंको न तो तितर-बितर करके भगा सकते हैं और न उनका वध ही कर सकते हैं। शुरवीर पुरूष ही युद्धमें अपनी और अपने पक्षके सैनिकोंकी रक्षा करता हुआ शत्रुओंका संहार कर सकता है। सैनिकोंको यह भी समझाा देना चाहिये कि युद्धके मैदानसे भागनेमें कई प्रकारके दोष हैं, एक तो अपने प्रयोजन और धनका नाश होता है। दूसरे भागते समय शत्रुके हाथसे मारे जाने का भय रहती है, तीसरे भागनेवालेकी निन्दा होती है और सब ओर उसका अपयश फैल जाता है। इसके सिवा युद्धसे भागनेपर लोगोंके मुखसे मनुष्यको तरह-तरहकी अप्रिय और दुःखदायिनी बातें भी सुननी पड़ती हैं। जिसके ओठ और दाँत टूट गये हों, जिसने सारे अस्त्र-शस्त्रोंको नीचे डाल दिया हो तथा जिसे शत्रुगण सब ओरसे घेरकर खड़े हों, ऐसा योद्धा सदा हमारे शत्रुओं की सेनामें ही रहे। जो लोग युद्धमें पीठ दिखाते हैं, वे मनुष्योंमें अधम हैं; केवल योद्धाओंकी संख्या बढ़ानेवाले हैं। उन्हें इहलोक या परलोकमें कहीं भी दुख नहीं मिलाता। शत्रु प्रसन्नचित होकर भागनेवाले योद्धाका पीछा करते हैं तथा तात! विजयी मनुष्य चन्दन और आभूषणोंद्वारा पूजित होते हैं। संग्रामभूमिमें आये हुए शत्रु जिसके यशका नाश कर देते है । उसके लिये उस दुःखको मैं मरणसे भी बढ़कर असह्य मानता हू़ं । वीरों! तुम लोग युद्वमें विजयको ही धर्मं एवं सम्पूर्ण सुखोंका मूल समझो। कायरों या डरपोंक मनुष्योंकों जिससे भारी ग्लानि होती है, वीर पुरूष उसी प्रहार और म्रत्युको सहर्ष स्वीकार करता है। अतः तुम लोग यह निश्चय कर लो कि हम स्वर्गकी इच्छा रखकर संग्राममें अपने प्राणोंका मोह छोड़कर लड़ेंगें। या तो विजय प्राप्त करेंगे या युद्धमें मारे जाकर सद्गति पायेगें। जो इस प्रकार शपथ लेकर जीवनका मोह छोड़ देते हैं, वे वीर पुरूष निर्भय होकर शत्रुओंकी सेनामें घुस जाते हैं। सेनाके कूच करते समय सबसे ओगे ढाल-तलवार धारण करनेवाले पुरूषोंकी टूकडी़ रखे । पीछेेकी ओर रथियोंकी सेना खड़ी करे और बीचमें राज-स्त्रियोंको रखे। उस नगरमें जो वृद्ध पुरूष अगुआ हों, वे शत्रुओंका सामना और विनाश करनेके लिये पैदल सैनिकोंको प्रोत्साहन एवं बढ़ावा दें। जो पहलेसे ही अपने शौर्यके लिये सम्मानित, धैर्यवान् और मनस्वी हैं, वे आगे रहें और दूसरे लोग उन्हींके पीछे-पीछे चलें। जो डरनेवाले सैनिक हों, उनका भी प्रयत्नपूर्वक उत्साह बढ़ाना चाहिये अथवा वे सेनाका विशेष समुदाय दिखानेके लिये ही आस-पास खडे़ रहें। यदि अपने पास थोडे़-से सैनिक हों तो उन्हें एक साथ संघबद्ध रखकर युद्ध करनेका आदेश देना चाहिये और यदि बहुत-से योद्धा हों तो उन्हें बहुत दूरतक इच्छानुसार फैलाकर रखना चाहिये। थोड़े-से सैनिकोंको बहुतोंके साथ युद्ध करना हो तो उनके लिये सूचीमुख नामक व्यूह उपयोगी होता है। अपनी सेना उत्कृष्ट अवस्थामें हो या निकृष्ट अवस्थामें, बात सच्ची हो या झूठी, हाथ ऊपर उठाकर हल्ला मचाते हुए कहे,‘वह देखो, शत्रु भाग रहे हैं, भाग रहें हैं, हमारी मित्रसेना आ गयी। अब निर्भय होकर प्रहार करो‘। इतनी बात सुनते ही धैर्यवान् और शक्तिशाली वीर भयंकर सिंहनाद करते हुए शत्रुओंपर टूट पड़ें। जो लोग सेना के आगे हों, उन्हें गर्जन-तर्जन करते और किलकारियाँ भरते हुए क्रकच, नरसिंह, भेरी, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजाने चाहिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वं में सेनानीति का वर्णनविषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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