एकाधिकशततम (101) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
- भिन्न-भिन्न देशके योद्धाओंके स्वभाव, रूप, बल, आचरण और लक्षणोंका वर्णन
युधिष्ठिरने पूछा-‘भरतनन्दन ! युद्धस्थलमें कैसे स्वभाव, किस, तरहके आचरण और कैसे रूपवाले योद्धा ठीक समझे जाते हैं? उनके कवच और अस्त्र-शस्त्र भी कैसे होने चाहिये? भीष्मजी बोले-‘राजन् ! अस्त्र-शस्त्र और वाहन तो योद्धाओंके देश और कुलके आचारके अनुरूप ही होने चाहिये। वीर पुरूष अपने परम्परागत आचारके अनुसार ही सभी कार्योंमें प्रवृत्त होता है। गान्धार, सिन्धु और सौवीर देशके योद्धा नखर (बधनखे) और प्राससे युद्ध करनेवाले हैं। वे बड़े बलवान् और निडर होते हैं। उनकी सेना सबको लाँघ जानेवाली होती है। उसीनरदेशके वीर सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रों में कुशल और बडे़ बलशाली होते हैं। पूर्वदेशके योद्धा हाथीपर सवार होकर युद्ध करनेकी कलामें कुशल है। वे कपटयुद्धके भी ज्ञाता हैं। यवन, काम्बोज और मथुराके आस-पासके रहनेवाले योद्धा मल्लयुद्धमें निपुण होते हैं। तथा दक्षिण देशोंके निवासी हाथोंमें तलवार लिये रहते हैं। (वे तलवार चलाना अच्छा जानते हैं)। प्रायः सभी देशोंमें महान् धैर्यशाली, महाबली एवं शूरवीर पैदा होते हैं। उन सबका उल्लेख अधिकतर किया जा चुका है। अब तुम मुझसे उनके लक्षण सुनो। जिनकी वाणी, नेत्र तथा चाल-ढाल सिंहों या बाघोंके समान होती है और जिनकी आँखें कबूतर या गौरैयेके समान होती हैं, वे सभी शूरवीर एवं शत्रुसेनाको मथ डालनेवाले हाते हैं। जिनका कण्ठस्वर मृगोंके समान और नेत्र बाघ एवं बैलों के तुल्य होते हैं, ववीर वेगशाली, असावधान और मूर्ख हुआ करते हैं। जिनका कण्ठनाद किंकिणीके समान मधुर हो, वे स्वभावके बड़े क्रोधी होते हैं। जिनकी गर्जना मेघके समान, मुख क्रोधयुक्त, शरीर ऊँटकी तरह तथा नाक और जीभ टेढ़ी हो, वे बहुत दूरतक दौड़नेवाले तथा सुदूरवर्ती लक्ष्यको भी मार गिरानेवाले होते हैं। जिनका शरीर बिलावके समान कुबड़ा तथा सिरके बाल और देहकी खाल पतले हाते हैं, वे शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलानेवाले चंचल और दुर्जय होते हैं। जो गोहटीके समान आँखें बन्द किये रहते हैं, जिनका स्वभाव कोमल होता है तथा जिनके चलनेपर घोड़ेकी टाप पड़ने-जैसी आवाज हाती है, वे मनुष्य युद्धके पार पहुँच जाते हैं। जिनके शरीर गठीले, छाती चैड़ी और अंग-प्रत्यंग सुडौल होते हैं, जो युद्धमें डटकर खड़े होनेवाले हैं, वे वीर पुरूष युद्धका धौसा सुनते ही कुपित हो उठते हैं। उन्हें लड़ने-भिड़नेमें ही आनन्द आता है। जिनकी आँखे गहरी हैं अथवा बड़ी होनेके कारण निकली हुई-सी प्रतीत होती हैं या जिनके नेत्र पिंगलवर्णके हैं अथवा जिनकी आँखें नेवलेके समान भूरी-भूरी हैं और जिनके मुखपर भौंहें तनी रहती हैं, ऐसे लक्षणोंवाले सभी मनुष्य शूरवीर तथा रणभूमिमें शरीरका त्याग करनेवाले होते हैं। जिनकी आँखे तिरछी, ललाट ऊँवे और ठोड़ी मांसहीन एवं दुबली-पतली है, जिनकी भुजाओंपर वज्र का और अंगुलियोंपर चक्रका चिन्ह होता है तथा जिनके शरीरकी नस-नाडि़याँ दिखायी देती हैं, वे युद्ध उपस्थित होते ही बड़े वेगसे शत्रुओंकी सेना में घुस जाते हैं और मतवाले हाथियोंके समान शत्रुओंके लिये दुर्जय होते हैं। जिनके केशोंके अग्रभाग पीले और छितराये हुए हैं, पसलियाँ, ठोड़ी और मुँह लंबे एवं मोटे हैं, कंधे ऊँचे, गर्दन मोटी और पिण्डली भारी हैं, जो देखनेमें विमट जान पड़ते हैं, सुग्रीव जातिवाले अश्वोंके समान तथा गरूड़ पक्षीकी भाँति उद्धत स्वभावके हैं, जिनके सिर गोल और मुख विशाल हैं, जो बिलाव-जैसा मुख धारण करते हैं तथा जिनके स्वरमें कठोरता है, वे बड़े क्रोधी होते हैं और युद्धमें गर्जना करते हुए विचरते हैं। उन्हें धर्मका ज्ञान नहीं होता। वे घमंडमें भरे हुए घोर आकृतिवाले दिखायी देते हैं। उनका दर्शन ही बड़ा भयंकर है। ये सब-के-सब अन्त्यज (कोल-भील आदि) हैं, जो युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते और शरीरका मोह छोड़कर लड़ते हैं। सेनामें ऐसे लोगोंको सदा पुरस्कार देना चाहिये और इन्हें सदा आगे-आगे रखना चाहिये। ये धैर्यपूर्वक शत्रुओंकी मार सहते और उन्हें भी मारते हैं। ये अधर्मी होते है धर्म की मर्यादा भंग कर देते है इसी तरह ये बारंबार राजापर भी कुपित हो उठते अतः मीठी -मीठी बातों से समझा-बुझाकर ही काबू में करना चाहिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वं में विजयाभिलाषी राजा का बर्तावविषयक एक सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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