द्वयधिकशततम (102) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
- विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों का तथा उत्साही और बलवान सैनिकों का वर्णन एवं राजा को युद्धसम्बन्धी नीति का निर्देश
युधिष्ठिर ने पूछा - भरत श्रेष्ठ! विजय पाने वाली सेना के कौन -कौनसे शुभ लक्षण होते है यह मैं जानना चाहता हूँ। भीष्म जी ने कहा - भरत भूषण !विजय पानेवाली सेना के समक्ष जो - जो शुभ लक्षण प्रकट होते है उन सबका वर्णन करता हूँ सूनो। काल से प्रेरित हुए मनुष्य पर पहले दैवका प्रकोप होता है उसे विद्धान पुरूष जब ज्ञानमयी दिव्य दृष्टि से देख लेते है तब उसके प्रतीकारको जानने वाले वे पुरूष उसके प्रायश्चित्त का विधान -जप होम आदि मांगलिक कृत्य करते है और उस अहितकारक दैवी उपद्रव को शान्त कर देते हैं। भरतनन्दन! जिस सेना के योद्धा और वाहन मन में प्रसन्न एवं उत्साह युक्त होते है उसकी उत्तम विजय अवश्य होती है। यदि सेना की रण यात्रा के समय सैनिकों के पीछे से मन्द -मन्द वायु प्रवाहित हो सामने इन्द्र धनुष का उदय हो बार -बार बादलों की छाया होती रहे और सूर्य की किरणों का भी प्रकाश फैलता रहे तथा गीदड. गीध और कौए भी अनुकूल दिशा में आ जायँ तो निश्चय ही उस सेना को परम उत्तम सिद्धी प्राप्त होती है। यदि बिना धुएँ की आग प्रज्वलित हो उसकी ज्वाला निर्मल हो और लपटें उपर की ओर उठ रही हों अथवा उस अग्नि की शिखाएँ दाहिनी ओर जाती दिखायी देती हों तथा आहुतियों की पवित्र गन्ध प्रकट हो रही तो इन सबको भावी विजय का शुभ चिह्न बताया गया है। जहाँ शंखों की गम्भीर ध्वनि और रणभेरी की उँची अवाज फैल रही हो युद्ध की इच्छा रखने वाले सैनिक सर्वथा अनुकूल हों तो वहाँ के लिये इसे भी भावी विजय का सूचक शुभ लक्षण कहा गया है। सेना के प्रस्थान करते समय अथवा जाने के लिये तैयारी करते समय यदि इष्ट मृग पीछे और बायें आ जायँ तो इच्छित फल प्रदान करते है तथा युद्ध करते समय दाहिने हो जायँ तो वे सिद्धिकी सूचना देते है; किंतु यदि सामने आ जायँ तो उस युद्ध की यात्रा का निषेध करते है। जब हंस क्रौच, शतपत्र और नीलकण्ठ आदि पक्षी मंगलसूचक शब्द करते हो और सैनिक हर्ष तथा उत्साहसे सम्पन्न दिखायी देते हों तो यह भी भावी विजयका शुभ लक्षण बताया गया है। जिनकी सेना भाँति -भाँति के शस्त्र कवच ,यन्त्र तथा ध्वजाओंसे सुशोभित हो ,जिनके नौजवान सैनिकों के मुखकी सुन्दर प्रभामयीकान्तिसे प्रकाशित होती हुई सेनाकी और शुत्रओंको देखने का भी साहस न होता हो वे निश्चय ही शत्रुदलको परास्त कर सकते है। जिनके योेद्ध स्वामीकी सेवा में उत्साह रखने वाले, अहंकार रहित, आपसमें एक – दूसरे का हित चाहनेवाले तथा शौचाचारका पालन करने वाले हो, उनकी होनेवाली विजयका यही शुभ लक्षण बनाया है। जब योद्धाओंके मनको प्रिय लगनेवाले शब्द स्पर्श और गन्ध सब ओर फैल रहे हों तथा उनके भीतर धैर्यका संचार हो रहा हो तो वह विजयका द्वार माना जाता है। यदि कौआ युद्धमें प्रवेश करते समय दाहिने भागमें और प्रविष्ट हो जाने के बाद बायें भागमें आ जाय तो शुभ है। पीछे की ओर होने से भी वह कार्य की सिद्धि करता है; परंतु सामने होने पर विजय में बाधा डालता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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