द्वयधिकशततम (102) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वयधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद
युधिष्टिर! विशाल चतुरंगिणी सेना एकत्र कर लेनेके बाद भी तुम्हें पहले सामनीतिके द्धारा शु़त्रसे सन्धि करने का ही प्रयास करना चाहिये। यदिवह सफल न हो तो युद्ध के लिये प्रयत्न करना उचित है। भरतनन्दन ! युद्ध करके जो विजय प्राप्त होती है, उसे निकृष्ट ही माना गया है। युद्धसम्बन्धी विजय अचानक प्राप्त होती है या दैवेच्छा से; यह बात विचारणीय ही होती है। इसका पहलेसे कोई निश्वत नहीं रहता है। यदि विशाल सेना भगदड़ मच होती है तो उसे जलके महान् वेगके समान तथा भयभीत हुए महामृगोंुके समान रोकना अत्यन्त कठिन हो जाता है। विशाल सेना मृगोंके झुड़के समानहोती है । उसमें कितने ही बलवान् वीर क्यों न भरे हो ,कुछ लोग भागने लगते है। यद्यपि उन्हें भागने का कारण नहीं मालूम रहता है। एक -दुसरे को जाननेवाले, हर्ष और उत्साहसे परिपूर्ण, प्राणोंका मोह छोड़ देनेवाले तथा मरने -मारनेके दृढ़ निश्चयसें युक्त पचास शूरवीर भी सारी शत्रु-सेना का संहार कर सकते है। अच्छे कुलमें उत्पन्न ,परस्पर सगठितम तथा राजाद्धारा सम्मानित पाँच,छः या सात वीर भी यदि दृढ़ निश्चयके साथ युद्धस्थलमें डटे रहें तो शत्रुओंपर भली भाँति विजय पा सकते है। जब तक किसी तरह सन्धि हो सकती हो, तब तक युद्धको स्वीकार नहीं करना चाहिये। पहले सामनीतिसे समझावे। इससे न चले तो भेदनीतिकेअनुसार शत्रुओं में फूट डालें। इसमें भी सफलता न मिले तो दाननीतिका प्रयोगकरे - धन देकर शत्रु के सहाय कों को वश में करने का चेष्टा करे । इन तीनों उपायों के सफलन होने पर अन्त में युद्ध का आश्रय लेना उचित बताया गया है। शत्रु की सेना को देखते ही कायरों को भय सताने लगता है, मानो उनके ऊपर प्रज्वलित वज्र गिरने वाला हो। वे सोचते हैं, न जाने यह सेना किसके ऊपर पडे़गी ? जे युद्ध को उपस्थित हुआ जानकार उसकी ओर दौड़ पड़ते हैं, उन वीरों के शरीर में विजय की आशा से आनन्दजनित पसीने के बिन्दु प्रकट हो जाते हैं। राजन् ! युद्ध उपस्थित होने पर स्थावर- जंगल प्राणियों सहित समस्त देश ही व्यथित हो उठता है और अस्त्रों के प्रताप संतप्त हुए देहधारियों की मज्जा भी सूखने लगती है। उन देशवासियों के प्रति कठोरता के साथ-साथ सान्त्वनापूर्ण मधुर वचनों का बारंबार प्रयोग करना चाहिये; अन्यथा केवल वचनों से पीडी़त हो वे सब ओर से जाकर शत्रुओं के साथ मिल जाते हैं। शत्रु के मित्रों में फूट डालने के लिये गुप्तचरों को भेजना चाहिये और जो शत्रु से भी बलवान् राजा हो, उसके साथ सन्धि करना श्रेष्ठ है। अन्यथा उसको वैसी पीडा़ नहीं दी जा सकती, जैसी कि उसके शत्रु के साथ सन्धि करके दी जा सकती है। युद्ध इस प्रकार करना चाहिये, जिससे शत्रुपक्ष सब ओर से संकट में पड़ जाय । कुन्तीनन्दन! सत्पुरूषों को ही सदा क्षमा करना आता है, दुष्टों को नही। क्षमा करने और न करने का प्रयोजन बताता हूँ; इसे सुनों और समझों। जो राजा शत्रुओं को जीत लेने के बाद उनके अपराध क्षमा कर देता है, उसका यश बढता है। उसके प्रति महान अपराध करने पर भी शत्रु उस पर विश्वास करते है। शम्बरासुर का मतहै कि पहले शत्रु को पीडा द्वारा अत्यन्त दुर्बल करके फिर उसके प्रति क्षमा का प्रयोग करना ठीक है; क्योंकि यदि टेढी लकडी को बिना गर्म किये ही सीधी किया जाय तो वह फिर ज्यों की त्यों हो जाती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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