महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 103 श्लोक 1-15

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त्रयधिकशततम (103) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
शत्रु को वश में करने के लिये राजा को किस नीति से काम लेना चाहिये और दुष्टों को कैसे पहचानना चाहिये-इसके विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद

युधिष्ठिर ने पुछा- पितामह! पृथ्वीपते! जिसका पक्ष प्रबल और महान् हो, वह शत्रु यदि कोमल स्वभाव का हो तो उसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये और यदि वह तीक्ष्ण स्वभाव का हो तो उसके साथ पहले किस तरह का बर्ताव करना राजा के लिये उचित है, यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा-‘युधिष्ठिर! इस विषय में विद्वान् पुरूष बृहस्पति और इन्द्र के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है, शत्रु वीरों का संहार करने वाले देवराज इन्द्र ने बृहस्पति जी के पास जा उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा। इन्द्र बाले-ब्रह्यन्! मैं आलस्य रहित हो अपने शत्रुओं के प्रति कैसा बर्ताव करूँ? उन सबका समूलोच्छेद किये बिना ही उन्हें किस उपाय से वश मे करूँ ? दो सेनाओं में परस्पर भिड़न्त हो जाने पर विजय दोनों पक्षों के लिये साधारण - सी वस्तु हो जाती है अमुक पक्षों की ही जीत होगी यह नियम नहीं रह जाता अतः मुझे क्या करना चाहिये जिससे शत्रुओं को संताप देने वाली यह समुज्जवल राज्यलक्ष्मी मुझे कभी न छोडे़। उनके इस प्रकार पूछने पर धर्म अर्थ और काम के प्रतिपादन में कुशल प्रतिभाशाली तथा राजधर्म के विधान को जानने वाले इ्रन्द्र को इस प्रकार उत्तर दिया। बृहस्पति जी बोले - राजन् ! कोई भी राजा कभी कलह या युद्ध के द्वारा शत्रुओं को वश में करने की इच्छा न करे असहनशीलता अथवा क्षमा को छोड़ना यह बालकों या मूर्खो द्वारा सेवित मार्ग है। शत्रु के वध की इच्छा रखने वाले राजा को चाहिये कि वह क्रोध भय और हर्ष को अपने मनमें ही रोक ले तथा शत्रु को सावधान न करे। भीतर से विश्वास न करते हुए भी बाहर से विश्वस्त पुरूष की भाँति अपना भाव प्रदर्शित करते हुए शत्रु की सेवा करे सदा उससे प्रिय वचन ही बोले कभी कोई अप्रिय बर्ताव न करे। पुरंदर ! सुखे वैरसे अलग रहे कण्ठकों पीड़ा देने वाले वाद -विवाद को त्याग दे जैसे व्याध अपने कार्य में सावधानी के साथ संलग्न हो पक्षियों को फँसाने के लिये उन्हीं के समान बोली बोलता है और मौका पाकर उन पक्षियों को वश में कर लेता है उसी प्रकार उघोगशील राजा धीरे -धीरे शत्रुओं को वश में कर ले तत्पश्चात् उन्हे मार डाले। इन्द्र ! जो सदा शत्रुओं का तिरस्कार ही करता है वह सुखे से सोने नहीं पाता वह दुष्टात्मा नरेश बाँस और घास -फूस में प्रज्वलित हो चट-चट शब्द करने वाली आग के समान सदा जागता ही रहता है। प्रभो ! जब युद्ध में विजय एक सामान्य वस्तु है (किसी को भी वह मिल सकती है) तब उसके लिये पहले ही युद्ध नहीं करना चाहिये अपितु शत्रु को अच्छी तरह विश्वास दिलाकर वश में कर लेने के पश्चात् अवसर देखकर उसके सारे मनसूबे को नष्ट कर देना चाहिये। शत्रु के द्वारा उपेक्षा अथवा अवहेलना की जाने पर भी राजा अपने मन में हिमम्त न हारे वह मन्त्रियों सहित मन्त्रवेत्ता महापुरूषों के साथ कर्तव्य का निश्चय करके समय आने जब शत्रु की स्थिति कुछ डाँवाडोल हो जाय तब उसपर प्रहार करे और विश्वास पात्र पुरूषों को भेजकर उनके द्वारा शत्रु की सेना में फुट डलवा दे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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