महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 107 श्लोक 16-32

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Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:३१, १६ जुलाई २०१५ का अवतरण
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सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद

ज्ञानवृद्ध पुरूष गणराज्य के नागरिकों की प्रशंसा करते हैं। संघबद्ध लोगों के मन में आपस में एक-दूसरे को ठगने की दुर्भावना नही होती। वे सभी एक-दूसरे की सेवा करते हुए सुखपूर्वक उन्नति करते हैं। गणराज्य के श्रेष्ठ नागरिक शास्त्र के अनुसार धर्मानुकूल व्यवहारों की स्थापना करते हैं। वे यथोचित दृष्टि से सबको देखते हुए उन्नति की दिशा में आगे बढ़ते जाते हैं। गणराज्य के श्रेष्ठ पुरूष पुत्रों और भाईयों को भी यदि वे कुमार्गं पर चलें तो दण्ड़ देते हैं। सदा उन्हें उत्तम शिक्षा प्रदान करते हैं और शिक्षित हो जाने पर उन सबको बड़े आदर से अपनाते हैं। इसलिये वे विशेष उन्नति करते हैं। महाबाहु युधिष्ठिर ! गणराज्य के नागरिक गुप्तचर या दूत का काम करने, राज्य के हित के लिये गुप्त मप्त्रणा करने, विधान बनाने तथा राज्य के लिये कोश-संग्रह करने आदि के लिये सदा उद्यत रहते हैं, इसलिये सब ओर से उनकी उन्नति करते हैं। नरेश्वर ! संघराज्य के सदस्य सदा बुद्धिमान्, शूरवीर, महान् उत्साही और सभी कार्यों में दृढ़ पुरूषार्थं का परिचय देने वाले लोगों का सदा सम्मान करते हुए राज्य की उन्नति के लिये उद्योगशील बने रहते हैं। इसीलिये वे शीघ्र आगे बढ़ जाते हैं। गणराज्य के सभी नागरिक धनवान्, शूरवीर, अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता तथा शास्त्रों के पारंगत विद्वान् होते हैं। वे कठिन विपत्ति में पड़कर मोहित हुए लोगों का उद्धार करते रहते हैं। भरतश्रेष्ठ ! संघराज्य के लोगों में यदि क्रोध, भेद (फूट), भय, दण्डप्रहार, दूसरों को दुर्बल बनाने, बन्धन में डालने या मार डालने की प्रवृति पैदा हो जाय तो वह उन्हें तत्काल शत्रुओं के वश में डाल देती हैं। राजन्! इसलिये तुम्हे गणराज्य के जो प्रधान -प्रधान अधिकारी है, उन सबका सम्मान करना चाहिये; क्योकि लोकयात्रा का महान् भार उनके ऊपर अवलम्बित है। शुत्र सूदन ! भारत !गण या संध के सभी लोग गुप्त मन्त्रणा को गुप्त मन्त्रणा सुनने के अधिकरी नहीं है। मन्त्रणा को गुप्त रखने तथा गुप्त चरों कीनियुक्ति का कार्य प्रधान -प्रधान व्यक्तियों के ही अधीन होता है। गण के मुख्य -मुख्य व्यक्तियों को परस्पर मिलकर समस्त गणराज्य के हितका साधन करना चाहिये; अन्यथा यदि संध में फूट होकर पृथक् -पृथक् कई दलोंका विस्तार हो जाय तो उसके सभी कार्य बिगड़ जाते और बहुत -से अनर्थ पैदा जाते है। परस्पर फूटकर पृथक -पृथक अपनी शक्ति का प्रयोग करने वाले लोगों में जो मुख्य -मुख्य नेता हों ,उनका संधराज्य के विद्धान् अधिकारियों को शीध्र ही दमन करना है। कुलों में जो कलह होते है, उनकी यदि कुल के वृद्ध पुरूषों ने उपेक्षा कर दी तो वे कलह गणों में फूट डालकर नाश कर डालते है। भीतर भय दूर करके संध की रक्षा करनी चाहिये। यदि संध में एकता बनी रहे तो बारह का भय उसके लिय निःसार है (वह उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता )। राजन्! भीतर का भय तत्काल ही संधराज्य की जड़ काट डालता है। अकस्मात् पैदा हुए क्रोध और मोह से अथवा स्वाभाविकलोंभ से भी जब संघ के लोग आपस से बातचीत करना बंद कर दें तब यह उनकी पराजय का लक्षण है। जाति और कुल में सभी एक समान हो सकते है; परंतु उद्योग, वृ़िद्ध और रूप - सम्पत्ति में सबका एक -सा होना सम्मव नहीं है। शत्रु लोग गणराज्य के लोगों में भेदबुद्धि पैदा करके तथा उनमें से कुछ लोगों को धन देकर भी समूचे संघ में फूट डालदेते हैं; अतः संघबद्ध रहना ही गणराज्य के नागरिकों का महान् आश्रय है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में गणराज्य का बर्तावविषयक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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