चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम (144) अध्याय: उद्योग पर्व ((भगवद्-यान पर्व)
महाभारत: उद्योग पर्व: चतुश्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद
परंतुयह एक मात्र मिथ्यादर्शी कर्ण मोहवश सदा दुर्बुद्धि दुर्योधन का ही अनुसरण करनेवाला है। इसीलिये यह पापात्मा सर्वदा पाण्डवों से द्वेष ही रखता है। इसने सदा पाण्डवों का बडा भारी अनर्थ करने के लिये हठ ठान लिया है। साथ ही कर्ण अत्यन्त बलवान भी है। यह बात इस समय मेरे हृदय को दग्ध किये देती है। अच्छा, आज मैं कर्णके मन को पाण्डवों के प्रति प्रसन्न करने के लिये उसके पास जाऊँगी और यथार्थ सम्बन्ध परिचय देती हुई उससे बातचीत करूँगी। जब मैं पिता के घर रहती थी, उन्हीं दिनों अपनी सेवाओं द्वारा मैंने भगवान दुर्वासा को संतुष्ट किया और उन्होंने मुझे यह वर दिया कि मन्त्रोच्चारणपूर्वक आवाहन करनेपर मैं किसी भी देवता को अपने पास बुला सकती हूँ । मेरे पिता कुन्तिभोज मेरा बडा आदर करते थे। मैं राजा के अन्त:पुर में रहकर व्यथित ह्रदय मन्त्रों के बलाबल और ब्राह्माण की वाक्शक्ति के विषय में अनेक प्रकार का विचार करने लगी। स्त्री–स्वभाव और वाल्यावस्था के कारण मैं बार-बार इस प्रश्न को लेकर चिन्तामग्न रहने लगी। उन दिनों एक विश्वस्त धाय मेरी रक्षा करती थी और सखियाँ मुझे सदा घेरे रहती थी। मैं अपने ऊपर आनेवाले सब प्रकार के दोषों का निवारण करती हुई पिताकी दृष्टि में अपने सदाचार की रक्षा करती रहती थी। मैंने सोचा, क्या करूँ, जिससे मुझे पुण्य हो और मैं अपराधिनी न होऊँ। यह सोचकर मैंने मन-ही-मन उन ब्राह्मण देवता को नमस्कार किया और उस मन्त्र को पाकर कौतूहल तथा अविवेक के कारण मैंने उसका प्रयोग आरम्भ कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि कन्यावस्था में ही मुझे भगवान सूर्यदेव का संयोग प्राप्त हुआ। जो मेरा कानीन गर्भ है, इसे मैंने पुत्र की भाँति अपने उदर में पाला है। वह कर्ण अपने भाईयों के हित के लिये कही हुई बात मेरी लाभदायक बात क्यों नहीं मानेगा। इस प्रकार उत्तम कर्तव्य का निश्चय करके अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिये एक निर्णयपर पहुँचकर कुन्तीभागीरथी गंगा के तटपर गयी।वहाँ गंगा किनारे पहुँचकर कुन्ती अपने दयालु और सत्यपरायण पुत्र कर्ण के मुख से वेदपाठ की गम्भीर ध्वनि सुनी। वह अपनी दोनों वाँहे ऊपर उठाकर पूर्वाभिमुख हो जप कर रहा था और तपस्विनी कुन्ती उसके जपकी समाप्ति की प्रतीक्षा करती हुई कार्यवश उसके पीछे ओर खड़ी रही। व्रष्णिकुलनन्दिनी पाण्डुपत्नी कुन्ती वहाँ सूर्यदेव के तापसे पीड़ित हो कुम्हलाती हुई कमलमाला के समान कर्ण के उत्तरीय वस्त्र की छाया में खडी हो गयी। जबतक सूर्यदेव पीठ की ओर ताप न देने लगे (जब तक वे पूर्व से पश्चिम की ओर चले नहीं गये); तब तक जप करके नियमपूर्वक व्रत का पालन करनेवाला कर्ण जब पीछे की ओर घूमा, तब तक कुन्ती को सामने पाकर उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनके पास खड़ा हो गया। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, अभिमानी और महातेजस्वी सूर्यपुत्र कर्ण जिसका दूसरा नाम वृष भी था, कुन्ती को यथाचित रीति से प्रणाम करके मुस्कराता हुआ बोला।
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अन्तर्गत भगवाधान पर्व में कुन्ती और कर्ण की भेंट विषयक एक सौ चौवालिसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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