दशाधिकशततम (110) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
- सदाचार और ईश्वरभक्ति आदि को दु
- खों से छूटने का उपाय बताना
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह ! जगत के जीव भिन्न–भिन्न भावों के द्वारा जहां-तहां नाना प्रकार के कष्ट उठा रहे हैं; अत: जिस उपाय से मनुष्य इन दु:खों से छुटकारा पा सके, वह मुझे बताइये ।भीष्म जी ने कहा-‘राजन जो द्विज अपने मन को वश में करके शास्त्रोक्त चारों आश्रमों में रहते हुए उनके अनुसार ठीक-ठीक बर्ताव करते हैं, वे दु:खों के पार हो जाते हैं । जो दम्भयुक्त आचरण नियमानुकूल चलती हैं और जो विषयो के लिये बढ़ती हुई इच्छा को रोकते हैं, वे दु:खों को लांघ जाते हैं।जो दूसरों के कटुवचन सुनाने या निन्दा करने पर भी स्वयं उन्हें उतर नहीं देते, मार खाकर भी किसी को मारते नहीं तथा स्वयं देते हैं, परंतु दूसरों से मांगते नहीं; वे भी दुर्गम संकट से पार हो जाते हैं । जो प्रतिदिन अतिथियों को अपने घर में सत्कार-पूर्वक ठहराते हैं, कभी किसी के दोष नहीं देखते हैं तथा नित्य नियमपूर्वक वेदादि सदग्रन्थों का स्वाध्याय करते रहते हैं, वे दुगर्म संकटों से पार हो जाते हैं।जो धर्मज्ञ पुरुष सदा माता-पिता की सेवा में लगे रहते हैं और दिन में कभी नहीं सोते हैं, वे सभी दु:खों से छूट जाते हैं। जो मन, वाणी, और क्रिया द्वारा कभी पाप नहीं करते हैं ओर किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं पहुंचाते हैं, वे भी संकट से पार हो जाते हैं।जो रजोगुण सम्पन्न राजा लोभवश प्रजा के धन का अपहरण नहीं करते हैं और अपने राज्य की सब ओर से रक्षा करते हैं, वे भी दुर्गम दु:खों को लांघ जाते हैं। जो गृहस्थ प्रतिदिन अग्निहोत्र करते और ॠतुकाल में अपनी ही स्त्री के साथ धर्मानुकुल समागम करते हैं, वे दु:खों से छूट जाते है। जो शुरवीर युद्धस्थल में मृत्यु का भय छोड़कर धर्मपूर्वक विजय पाना चाहते हैं, वे सभी दु:खों से पार हो जाते हैं। जो लोग प्राण जाने का अवसर उपस्थित होने पर भी सत्य बोलना नही छोड़ते, वे सम्पूर्ण प्राणियों के विश्वासपात्र बने रहकर सभी दु:खों से पार हो जाते हैं।। जिनके शुभ कर्म दिखावे के लिये नहीं होते, जो सदा मीठे वचन बोलते और जिनका धन सत्कर्मों के लिये बंधा हुआ हैं, वे दुर्गम संकटों से पार हो जाते हैं। जो अनध्याय के अवसरों पर वेदों का स्वाध्याय नहीं करते और तपस्या में ही लगे रहते हैं, वे उत्तम तपस्वी ब्रहामण दुस्तर विपति में छुटकारा पा जाते हैं। जो तपस्या करते, कुमारावस्थासेही ब्रह्मचार्य के पालन में तत्पर रहते हैं और विद्या एवं वेदों के अध्ययन सम्बन्धी व्रत को पूर्ण करके स्नान तक हो चुके हैं, वे दुस्तर दु:खों को तर जाते हैं। जिन के रजोगुण और तमोगुण शान्त हो गये हों तथा जो विशुद्ध सत्वगुण में स्थित हैं, वे महात्मा दुर्लध्य संकटों को भी लांघ जाते हैं । जिनसे कोई भयभीत नहीं होता, जो स्वयं भी किसी से भय नहीं मानते तथा जिनकी दृष्टि में यह सारा जगत अपने आत्मा के ही तुल्य है, वे दुस्तर संकटों से तर जाते हैं। जो दूसरों की सम्पति से ईर्ष्यावश जलते नहीं हैं और ग्राम्य विषय-भोग से निवृत हो गये हैं, वे मनुष्यों में श्रेष्ठ साधु पुरुष दुस्तर विपति से छुटकारा पा जाते हैं ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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