षोडशाधिकशततम (116) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: षोडशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
- सज्जनों के चरित्र के विषय में दृष्टान्तरुप से एक महर्षि और कुते की कथा
युधिष्ठिर ने पूछा- भरतश्रेष्ठ ! जहां राजा के पास अच्छे कुल में उत्पन्न सहायक नहीं हैं, वहां वह नीच कुल के मनुष्यों को सहायक बना सकता है। या नही ? भीष्मजी ने कहा- युधिष्ठिर ! इस विषय में जानकार लोग एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जो लोक में सत्पुरुषों के आचरण के सम्बन्ध में सदा उत्तम आदर्श माना जाता है। मैंने तपोवन इस विषय के अनुरुप बातें सुनी हैं, जिन्हें श्रेष्ठ महर्षियों ने जमदग्निनन्दन परशुरामजी से कहा था। किसी महान निर्जन वन में फल-मूल का आहार करके रहनेवाले एक नियमपरायण जितेन्द्रीय महर्षि रहते थे। वे उत्तम व्रत की दीक्षा लेकर इन्द्रीयसंयम और मनोनिग्रह करते हुए प्रतिदिन पवित्रभाव से वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय में लगे रहते थे। उपवास से उनका अन्त:करण शुद्ध हो गया था। वे सदा सत्वगुण में स्थित थे। एक जगह बैठे हुए उन बुद्धिमान महर्षि के सदभाव को देखकर सभी वनचारी जीव-जन्तु उनके निकट आया करते थे। क्रुर स्वभाव वाले सिंह और व्याघ्र, बड़े-बड़े मतवाले हाथी, चीते, गैंड़े, भालू तथा और भी जो भयानक दिखायी देने वाले जानवर थे, वे सब उनके पास आते थे। यद्यपि वे सारे-के-सारे मांसाहारी जानवर थे, तो भी उस ॠषी के शिष्य की भांति नीचे सिर किये उनके पास बैठते थे, उनके सुख और स्वास्थ्य की बात पूछते थे और सदा उनका प्रिय करते थे। वे सब जानवर ॠषि से उसका कुशल-समाचार पूछकर जैसे आते, वैसे लौट जाते थे; परंतु एक ग्रामीण कुता वहां उन महामुनि को छोड़कर कहीं नही जाता था। वह उन महामुनि का भक्त और उनमें अनुरक्त था; उपवास करने के कारण दुर्बल एवं निर्बल हो गया था। वह भी फल-मूल और जल का आहार करके रहता, मन को वश में रखता और साधु-पुरुषों के समान जीवन बिताता था। महामते ! उन महर्षि के चरण प्रान्त में बैठे हुए उस कुते के मन में मनुष्य के समान भाव (स्नेह) हो गया। वह उनके प्रति अत्यन्त स्नेह से बंध गया। तदनन्तर एक दिन कोई महाबली रक्तभोजी चीता अत्यन्त प्रसन्न होकर उस कुते को पकड़ने के लिये क्रुर काल एवं यमराज के समान उधर आ निकला। वह बारंबार अपने दोनों जबड़े चाटता और पूंछ फटकारता था, उसे प्यास सता रही थी। उसने मुंह फैला रखा था। भुख से उसकी व्याकुलता बढ़ गयी थी और वह उस कुते का मांस प्राप्त करना चाहता था। प्रजानाथ ! नरेश्वर ! उस क्रुर चीते को आते देख अपनी प्राणरक्षा चाहते हुए वहां कुते ने मुनि ने जो कुछ कहा,वह सुनो- ‘भगवन ! यह चीता कुतों का शत्रु है और मुझे मार डालना चाहता है। महामुने ! महाबाहो ! आप ऐसा करें, जिससे आपकी कृपा से मुझे इस चीते से भय न हो। आप सर्वज्ञ हैं, इसमें संशय नहीं है। (अत: मेरी प्रार्थना सुनकर उसको अवश्य पूर्ण करें)। वे सिद्धि के ऐश्वर्य से सम्पन्न मुनि सब के मनोभाव को जानने वाले और समस्त प्राणियों की बोली समझने वाले थे। उन्होंने उस कुते के भय का कारण जानकर उससे कहा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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