सप्तविंशत्यधिकशततम (127) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
- ॠषभ का राजा सुमित्र को वीरद्युम्न और तनु मुनि का वृतान्त सुनाना
भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! तदनन्तर उन समस्त ॠषियों में से मुनिश्रेष्ठ ब्रह्मर्षि ॠषभ ने विस्मित होकर इस प्रकार कहा-नृपश्रेष्ठ ! पहले की बात हैं, मैं सब तीर्थो में विचरण करता हुआ भगवान् नरनारायण के दिव्य आश्रम में जा पहुंचा। ‘राजन् ! जहां वह रमणीय बदरी का वृक्ष हैं, जहां वैहायस[१] कुण्ड है तथा जहां अश्वशिरा (हयग्रीव) सनातन वेदों का पाठ करते हैं (वहीं नरनारायणाश्रम है)। उस वैहायस कुण्ड में स्नान करके मैंने विधिपूर्वक देवताओं और पितरों का तर्पण किया। उसके बाद उस आश्रम में प्रवेश किया, जहां मुनिवर नर और नारायण नित्य सानन्द निवास करते हैं। उसके बाद वहां से निकट ही एक-दूसरे आश्रम में मैं ठहरने के लिये गया। वहां मुझे तनु नामवाले एक तपोधन ॠषि आते दिखायी दिये, जो चोर और मृगचर्म धारण किये हुए थे। उनका शरीर बहुत उंचा और अत्यन्त दुर्बल था। महाबाहो ! उन महर्षि का शरीर दूसरे मनुष्यों से आठ गुना लंबा था। राजर्षे ! मैंने उनकी-कैसी दुर्बलता कहीं भी नहीं देखी हैं। राजेन्द्र ! उनका शरीर भी कनिष्ठि का अंगुली के समान पतला था। उनकी गर्दन, दोनों भुजाएं, दोनों पैर और सिर के बाल भी अद्भुत दिखायी देते थे। शरीर के अनुरुप ही उनके मस्तक, कान और नेत्र भी थें। नृपश्रेष्ठ ! उनकी वाणी और चेष्टा साधारण थी। मैं उन दुबले-पतले ब्राह्मण को देखकर डर गया और मन-ही-मन बहुत दुखी हो गया; फिर उनके चरणों में प्रणाम दोनों हाथ जोड़कर उनके आगे खड़ा हो गया। नरश्रेष्ठ ! उनके सामने नाम, गोत्र और पिता का परिचय देकर उन्हींके दिये हुए आसन भर धीरे से बैठ गया। महाराज ! तदनन्तर धर्मात्मओं में श्रेष्ठ तनु ॠषियों के बीच में बैठक्र धर्म और अर्थ से युक्त कथा कहने लगे।उनके कथा कहते समय ही कमल के समान नेत्रोंवाले एक नरेश वेगशाली घोड़ो द्वारा अपनी सेना और अन्त:पुर के साथ वहां आ पहुंचे। उनका पुत्र जंगल में खो गया था। उसकी याद करके वे बहुत दुखी हो रहे थे। उनके पुत्र का नाम था भूरिद्युम्न थे। यहां उस पुत्र को अवश्य देखूंगा। यहां वह निश्चय ही दिखायी देगा। इसी आशा से बंधे हुए पृथ्वीपति राजा वीरद्युम्न उन दिनों उस वन में विचर कर रहे थे। ‘वह बड़ा धर्मात्मा था। अब उसका दर्शन होना अवश्य ही मेरे लिये दुर्लभ है। एक ही बेटा था, वह भी इस विशाल वन में खो गया’ इन्हीं बातों को वे बार-बार दुहराते थे। ‘मेरे लिये उसका दर्शन दुर्लभ है तो भी मेरे मन में उसके मिलने की बड़ी भारी आशा लगी हुईहै। उस आशा ने मेरे सम्पूर्ण शरीर पर अधिकार कर लिया है। इसमें संदेह नहीं कि मैं इसके लिये मौत को भी स्वीकार कर लेना चाहता हूं’। राजा की यह बात सुनकर मुनियों में श्रेष्ठ भगवान् तनु नीचे सिर किये ध्यानमग्न हो दो घड़ी तक चुपचाप बैठे रह गये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विहायसा गच्छन्त्या मन्दाकिन्या वैहायस्या अयं वैहायस: ‘ अर्थात् आकाश मार्ग से गमनकरनेवाली मन्दाकिनी या आकाश गंगा का वैहायसी है। वहीं के जल से भरा होने के कारण वह कुण्ड वैहायस कहलाता है। बदरिकाश्रम में गंगा का नाम अलकनन्दा है।
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