महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-21

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०५:०३, १७ जुलाई २०१५ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वाविंश (22) अध्‍याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर की रणयात्रा, अर्जुन और भीमसेन की प्रशंसा तथा श्रीकृष्ण का अर्जुन से कौरवसेना को मारने के लिये कहना संजय कहते हैं- भरतश्रेष्ठ। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने भीष्मजी की सेना का सामना करने के लिये अपनी सेना की व्यूहरचना करते हुए उसे युद्ध के लिये प्रेरित किया। कुरुकुल के धुरन्धर वीर पाण्डवों ने उत्तम युद्ध के द्वारा उत्कृष्ट स्वर्गलोक की इच्छा रखकर शास्त्रोक्त विधि से शत्रु के मुकाबिले में अपनी सेना का व्यूह-निर्माण किया। व्यूह के मध्यभाग में सव्यसाची अर्जन द्वारा सुरक्षित शिखण्डी की सेना थी और अग्रभाग में भीमसेन द्वारा पालित धृष्टद्युम्न विचरण कर रहे थे। राजन। उस व्यूह के दक्षिण भाग की रक्षा इन्द्र के समान धनुर्धर सात्वतशिरोमणि श्रीमान सात्यकि कर रहे थे। राजा युधिष्ठिर हाथियों की सेना के बीच में खड़े एक सुन्दर रथ पर आरूढ़ हुए, जो देवराज इन्द्र के रथ की समानता कर रहा था। उस रथ में सब आवश्यक सामग्री रखी गयी थी। भाँति-भाँति के सुवर्ण तथा रत्नों से विभूषित होने के कारण उस रथ की विचित्र शोभा हो रही थी। उसमें सुवर्णमय भाण्ड तथा रस्सियाँ रक्खी हुईं थी। उस समय किसी सेवक ने युधिष्ठिर के ऊपर हाथी के दाँतों की बनी हुई शलाकाओं से युक्त श्वेत छत्र लगा रक्खा था, जिसकी बड़ी शोभा हो रही थी। कुछ महर्षिगणों ने नाना प्रकार की स्तुतियों द्वारा महाराज युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए उनकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की। शास्त्रों के विद्वान, पुरोहित, ब्रह्मर्षि और सिद्धगण जप मन्त्र तथा उत्तम औषधियों द्वारा सब ओर से युधिष्ठिर के कल्याण और शत्रुओं के संहार का शुभ आशीर्वाद देने लगे। उस समय देवराज इन्द्र के समान तेजस्वी कुरुश्रेष्ठ महात्मा युधिष्ठिर बहुत से वस्त्र, गाय, फल-फूल और स्वर्णमय आभूषण ब्राह्मणों को दान करते हुए आगे बढ़ रहे थे। अर्जुन का रथ ज्वालमालाओं से युक्त अग्नि के समान शोभा पा रहा था। उसमें सूर्य की आकृति के सहस्त्रों चक्र विद्यमान थे। सैकड़ों क्षुद्र घंटिकाएँ लगी थीं। बहुमूल्य जाम्बूनन्द नामक सुवर्ण से भूषित होने के कारण उस रथ की विचित्र शोभा हो रही थी। उसमें श्वेत रंग के घोड़े और सुन्दर पहिये लगे थे। गाण्डीव धनुष और बाण हाथ में लिये हुए कपिध्वज अर्जुन उस रथ पर आरूढ़ थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी बागडोर सँभाल रखी थीं। अर्जुन के समान धनुर्धर इस भूतल पर न तो कोई है और न होगा ही। महाराज। जो सुन्दर बाहों वाले भीमसेन बिना आयुध के केवल भुजाओं से ही युद्ध में मनुष्यों, घोड़ों और हाथियों को भस्म कर सकते हैं, उन्होंने ही आपके पुत्रों की सेना का संहार कर डालने के लिये अत्यन्त रौद्र रूप धारण कर रक्खा है। वृकोदर भीमसेन नकुल और सहदेव के साथ रहकर अपने वीर रथी धृष्टद्युम्न की रक्षा कर रहे थे। जो सिंहों और साँड़ों के समान उन्मत्त से होकर युद्ध का खेल खेलते हैं, जिनका दर्प गजराज के समान बढ़ा हुआ है तथा जो लोक में देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी हैं, उन्हीं दुर्धर्ष वीर भीमसेन को सेना के अग्रभाग में उपस्थित देख आपके सैनिक भय से उद्विग्न चित्त हो कीचड़ में फँसे हुए हाथियों की भाँति व्यथित हो उठे। उस समय सेना के मध्यभाग में खडे़ हुए दुर्जय वीर निद्राविजयी भरतश्रेष्ठ राजकुमार अर्जुन से भगवानश्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा। भगवान वासुदेव बोले- धनंजय। ये जो अपनी सेना के मध्यभाग में स्थित हो रोष से तप रहे हैं और सिंह के समान हमारी सेना की ओर देखते हैं, ये ही कुरुकुलकेतु भीष्म हैं, जिन्होंने अब तक तीन सौ अश्वमेघ यज्ञों का अनुष्ठान किया है। जैसे बादल अंशुमाली सूर्य को ढक लेते हो, उसी प्रकार ये सारी सेनाएँ इन महानुभाव भीष्म को आच्छादित किये हुए हैं। नरवीर अर्जुन। तुम पहले इन सेनाओं को मारकर भरतकुलभूषण भीष्मजी के साथ युद्ध की अभिलाषा करो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपव्र के अन्‍तर्गत श्री मद्भगवदगीता पर्व में श्रीकृष्‍ण और अर्जुन का संवादविषयक बाईसवांअध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख