महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 56 श्लोक 17-35

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Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:४३, १७ जुलाई २०१५ का अवतरण
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षट्पंचाशत्तम (56) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षट्पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद

द्विजरेष्ठ! मेरे बाद सैंकड़ों और हजारों शिष्य आपकी सेवा में आये और अध्ययन पूरा करके आपकी आज्ञा लेकर चले गये (कवेल मैं ही यहाँ पड़ा हुआ हूँ)। गौतम ने कहा- विप्रवर! तुम्हारी गुरुशुश्रुषा से तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम हो गया था। इसीलिये इतना अधिक समय बीत गया तो भी मेरे ध्यान में यह बात नही आयी। भृगुनन्दन! यदि आज तुम्हारे मन में यहाँ से जाने की इच्छा हुई है तो मेरी आज्ञा स्वीकार करो और शीघ्र ही यहाँ से अपने घर को चले जाओ। उत्तंक ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! प्रभो! मैं आपको गुरुदक्षिणा में क्या दूँ? यह बताइये। उसे आपको अर्पित करके आज्ञा लेकर घर को जाऊँ। गौतम ने कहा- ब्रह्मन्! सत्पुरष कहते हैं कि गुरु जानों को संतुष्ट करना ही उनके लिये सबसे उत्तम दक्षिणा है। तुमने जो सेवा की है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ, इसमें संशय नहीं है। भृकुकुल भेषण! इस तरह तुम कुझे पूर्ण संतुष्ट जानो। यदि आज तुम सोलह वर्ष के तरुण हो जाओ तो मैं तुम्हें पत्नी रूप से अपनी कुमारी कन्या अर्पित कर दूँगा, क्योंकि इसके सिवा दूसरी कोई स्त्री तुम्हारे तेज को नहीं सह सकती। तब उत्तंक ने तपो बाल से तरुण होकर उस यशस्विनी गुरु पुत्री का पाणिग्रहण किया। तत्पश्चात गुरु की आज्ञा पाकर वे गुरु पत्नी से बोले। ‘माताजी! मुझे आज्ञा दीजिये, मैं गुरु दक्षिणा में आपको क्या दूँ? अपना धन और प्राण देकर भी मैं आपका प्रिय एवं हित करना चाहता हूँ। ‘इस लोक में जो अत्यन्त दुर्लभ, अद्भुत एवं महान रत्न हो, उसे भी मैं तपस्या के बल से ला सकता हूँ, इसमें संशय नहीं है’। अहल्या बोली- निष्पाप ब्राह्मण! मैं तुम्हारे भक्ति भाव से सदा संतुष्ट हूँ। बेटा! मेरे लिये इतना ही बहुत है। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, जाओ। वैशम्पायनजी कहते हैं- महाराज! गुरु पत्नी की बात सुनकर उत्तंक ने फिर कहा- ‘माताती! मुझे आज्ञा दीजिये- मैं क्या करूँ? मुझे आपका प्रिय कार्य अवश्य करना है’। अहल्या बोली- बेटा! राजा सौदास की रानी ने जो दो दिव्य मणिमय कुण्डल धारण कर रखे हैं, उन्हें ले आओ। तुम्हारा कल्याण हो। उनके ला देने से तुम्हारी गुरु दक्षिणा पूरी हो जायगी। जनमेजय! तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर उत्तंक ने गुरु पत्नी की आज्ञा स्वीकार कर ली और उनका प्रिय करने की इच्छा से उन कुण्डलों को लाने के लिये चल दिये। ब्राह्मण शिरोमणि उत्तंक नरभक्षी राक्षस भाव को प्राप्त हुए राजा सौदास से उन मणिमय कुण्डलों की याचना करने के लिये वहाँ से शीघ्रतपूर्वक प्रस्थित हुए। उनके चले जाने पर गौतम ने पत्नी से पूछा-‘आज उत्तंक क्यों नहीं दिखायी देता है?’ पति के इस प्रकार पूछने पर अहल्या ने कहा- ‘वह सौदास की महारानी के कुण्डल ले आने के लिये गया’। यह सुनकर गौतम ने पत्नी से कहा- ‘देवि! यह तुमने अच्छा नहीं किया। राजा सौदास शापवश राक्षस हो गये हैं। अत: वे उस ब्राह्मण को अवश्य मार डालेंगे। अहल्या बोली- भगवन्! मैं इस बात को नहीं जानती थी, इसीलिये उस ब्राह्मण को ऐसा काम सौंप दिया। मुझे विश्वास है कि आपकी कृपा से उसे वहाँ कोई भय नहीं प्राप्त होगा। यह सुनकर गौतम ने पत्नी से कहा- ‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ उधर उत्तंक निर्जन वन में जाकर राजा सौदास से मिले।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेघिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में उत्तंक के उपाख्यान में कुण्डला हरण विषयक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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