महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 57 श्लोक 1-16
सप्तपंचाशत्तम (57) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
उत्तंक का सौदास से उनकी रानी के कुण्डल माँगना और सौदास के कहने से रानी मदयन्ती के पास जाना वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! राजा सौदास राक्षस होकर बड़े भयानक दिखायी देते थे। उनकी मूँछ और दाढी बहुत बड़ी थी। वे मनुष्यों के रक्त से रँगे हुए थे। उन्हें देखकर विप्रवर उत्तंक को तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उन्हें देखते ही महातेजस्वी राजा सौदास, जो यमराज के समान भयंकर थे, उठकर खड़े हो गये और उनके पास जाकर बोले- ‘कल्याण स्वरूप द्विजश्रेष्ठ! बड़े सौभाग्य की बात है कि दिन के छठे भाग में आप स्वयं ही मेरे पास चले आये। मैं इस समय आहार ही ढूँढ़ रहा था’। उत्तंक बोल- राजन्! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं गरु दक्षिणा के लिये घृूमता फिरता यहाँ आया हूँ। जो गरु दक्षिणा जुटाने के लिये उद्योगशील हो, उसकी हिंसा नहीं करनी चाहिये, ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है। राजा ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! दिन के छठे भाग में केरे लिये आहार का विधान किया गया है। यह वही समय है। मैं भूख से पीड़ित हो रहा हूँ। इसलिये मेरे हाथों से तुम छूट नहीं सकते। उत्तंक ने कहा- महाराज! ऐसा ही सही, किंतु मेरे साथ एक शर्त कर लीजिये। मैं गुरु दक्षिणा चुकार फिर आपके वश में आ जाऊँगा। राजेन्द्र! नृपश्रेष्ठ! मैंने गुरु को जो वस्तु देने की प्रतिज्ञा की है, वह आपके ही अधीन है, अत: नरेश्वर! मैं आपसे उसकी भीख माँगता हूँ। पुरुषसिंह! आप प्रतिदिन बहुत से श्रेष्ठ ब्राह्मणों को रत्न प्रदान करते हैं। इस पृथ्वी पर आप एक श्रेष्ठ दानी के रूप में प्रसिद्ध हैं और मैं भी दान लेने का पात्र हूँ। नृपश्रेष्ठ! आप मुझे प्रतिग्रह का अधिकारी समझें। शत्रुदमन राजेन्द्र! गुरु का धन जो आपके ही अधीन है, उन्हें अर्पित करके मैं अपनी की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार फिर आपके अधीन हो जाऊँगा। मैं आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ, इसमें किसी तरह मिथ्या के लिये स्थान नहीं है। मैं पहले कभी परिहास में झूठ नहीं बोला हूँ, फिर अन्य अवसरों पर तो बोल ही कैसे सकता हूँ। सौदास ने कहा- ब्रह्मन्! यदि आपकी गुरदक्षिणा मेरे अधीन है तो उसे मिली हुई समझिये। यदि आप मेरी कोई वस्तु लेने के योग्य मानते हैं तो बताइये, इस समय मैं आपको क्या दूँ। उत्तंकने कहा- पुरुषवर! आपका दिया हुआ दान मैं सदा ही ग्रहण करने के योग्य मानता हूँ। इस समय मैं आपकी रानी के दोनों मणिमय कुण्डल माँगने के लिय यहाँ आया हूँ। सौदास ने कहा- ब्रह्मर्षे! वे मणिमय कुण्डल तो मेरे रानी के ही योग्य हैं। सुव्रत! आप और कोई वस्तु माँगिये, उसे मैं आपको अवश्य दे दूँगा। उत्तंक ने कहा- पृथ्वीनाथ! अब बहाना करना व्यर्थ है। यदि आप मुझ पर विश्वास करते हैं तो वे दोनों मणिमय कुण्डल आप मुझे दे दें और सत्यवादी बनें। वैशम्पायनजी ने कहा- राजन्! उनके ऐसा कहने पर राजा फिर उत्तंक से बोले- ‘साधु शिरोमणे! आप रानी के पास जाइये और मेरी आज्ञा सुनाकर कहिये। आप मुझे कुण्डल दे दें। ‘द्विजश्रेष्ठ! रानी उत्तम व्रत का पालन करने वाली हैं। जब आप उनसे इस प्रकार कहेंगे, तब वे मेरी आज्ञा मानकर दोनों कुण्डल आपको दे देंगी, इसमें संशय नहीं है’।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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