द्वात्रिंशदधिकशततम (132) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
- ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन तथा धर्म की गति को सुक्ष्म बताना
युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह ! यदि राजा का सम्पूर्ण लोकों की रक्षा पर अवलम्बित परम धर्म निभ सकेऔर भूमण्डलमें आजीविका के सारे साधनों पर लुटेरों का अधिकार हो जाय, तब ऐसा जघन्य संकटकाल उपस्थित होने पर ब्राह्मण दयावश अपने पुत्रों तथा पौत्रों का परित्याग न करसके तो वह किस वृति से जीवन-निर्वाह करे? भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! ऐसी परिस्थिति में ब्राह्मण को तो अपने विज्ञान-बल का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये। इस जगत् में यह जो कुछ धन आदि दिखायी देता है, वह सब कुछ श्रेष्ठ पुरुषों के लिये ही है, दुष्टों के लिये कुछ भी नहीं है। जो अपने सेतु बनाकर दष्ट पुरुषों से धन लेकर श्रेष्ठ पुरुषों को देता है, वह आपद्धर्म का ज्ञाता है। जो अपने राज्य को बनाये रखना चाहे, उस राजा को उचित है कि वह राज्य की व्यवस्था का बिगाड़ न करते हुए बा्ह्मण आदि प्रजा की रक्षाके उदेश्य से ही राज्य के धनियों काधन मेरा ही है, ऐसा समझकर उनके दिये बिना ही बलपूर्वक ले ले। जो तत्वज्ञान के प्रभाव से पवित्र है और किस वृति से किसका निर्वाह हो सकता हे, इस बात को अच्छी तरह समझता है, वह धीर नरेश यदि राज्य को संकट से बचाने के लिये निन्दित कर्मो में भी प्रवृत होता है तो कौन उनकी निन्दा कर सकता है? युधिष्ठिर ! जो बल और पराक्रम से ही जीवित का चलानेवाले हैं, उन्हें दुसरी वृति अच्छी नहीं लगती। बलवान् पुरुष अपने तेज से हीकर्मो में प्रवृत होते हैं। जब आपद्धार्मोपयोगी प्राकृत शास्त्र ही सामान्य रुप से चल रहा हो, उस आपतिकाल में ‘अपने या दूसरे के राज्य से जैसे भी सम्भव हो, धन लेकर अपना खजाना भरना चाहिये’ इत्यादि वचनों के अनुसार जीवन-निर्वाह करे। परंतु जो मेधावी हो, वह इससे भी आगे बढ़कर ‘जो दो राज्यों में रहनेवाले धनीलोग कंजूसी अथवा असदाचरण के द्वारा पाने योग्य हों, उनसे हीधन लेना चाहिये।’ इत्यादि शास्त्रों का अवलम्बन करे। कितनी ही आपति क्यों न हो, ॠत्विक, पुरोहित, आचार्य तथा सत्कृत या असत्कृत ब्राह्मणों से, वे धनी हों तो भी धन लेकर उन्हें पीड़ा न दे। यदि राजा उन्हें धनापहरण के द्वारा कष्ट देता है तो पाप का भागी होता है। यह मैंने तुम्हें सब लोगों के लिये प्रमाणभूत बात बतायी है। यही सनातन दृष्टि है। राजा इसी को प्रमाण मानकर व्यवहार क्षेत्र में प्रवेश करे तथाइसी के अनुसार आपतिकाल में भले या बुरे कार्य का निर्णय करना चाहिये। यदि बहुत-से ग्रामवासी मनुष्य परस्पर रोषवश राजाके पास आकर एक-दूसरे की निन्दा-स्तुती करें तो राजा केवल कहने से ही किसी को न तो दण्ड दे और न किसी का सत्कार ही करे। किसी की भी निन्दा नहीं करनी चाहिये और न उसे किसी प्रकार सुनना ही चाहिये।यदि कोई दूसरे की निन्दा करता हो तो वहां अपने कानबंद कर ले अथवा वहां से उठकर अन्यत्र चला जाय। नरेश्वर ! दूसरों की निन्दा करना या चुगली खाना यह दुष्टों का स्वभाव ही होता है।श्रेष्ठ पुरुष तो सज्जनों के समीप दूसरों के गुण ही गाया करते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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