चत्वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 45-61 का हिन्दी अनुवाद
‘जो संदेह करने योग्य न हो, ऐसे व्यक्ति पर भी संदेह करे-उसकी ओर से चौकन्ना रहे और जिससे भय की आशंका हो, उसकी ओर से तो सदा सब प्रकार से सावधान रहे ही; क्योंकि जिसकी ओर से भय की आशंका न हो, उसकी ओर से यदि भय उत्पन्न होता है तो वह जड़मूलसहित नष्ट कर देता है। शत्रु के हित के प्रति मनोयोग दिखाकर, मौनव्रत लेकर, गेरूआ वस्त्र पहनकर तथा जटा और मृमचर्म धारण करके अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करे और जब विश्वास हो जाय तो मौका देखकर भूखे भेड़िये की तरह शत्रु पर टूट पड़े। ‘पुत्र, भाई, पिता अथवा मित्र जो भी अर्थप्राप्ति में विध्न डालने वाले हों, उन्हें ऐश्वर्य चाहने वाला राजा अवश्य मार डाले। ‘यदि गुरू भी घमंड में भरकर कर्तव्य और अकर्तव्य को नहीं समझ रहा हो और बुरे मार्गपर चलता हो तो उसके लिये भी दण्ड देना उचित है; दण्ड उसे राह पर लाता है। ‘शत्रु के आने पर उठकर उसका स्वागत करे, उसे प्रणाम करे और कोई अपूर्व उपहार दे। इन सब बर्तावों के द्वारा पहले उसे वश में करे। इसके बाद ठीक वैसे ही जैसे तीखी चोंचवाला पक्षी वृक्ष के प्रत्येक फूल और फल पर चोंच मारता है, उसी प्रकार उसके साधन और साध्यपर आघात करे। ‘राजा मछलीमारों की भांति दूसरों के मर्म विदीर्ण किये बिना, अत्यंत क्रूर कर्म किये बिना तथा बहुतों के प्राण लिये बिना बड़ी भारी सम्पति नहीं पा सकता है। ‘कोई जन्म से ही मित्र अथवा शत्रु नहीं होता है । सामर्थ्ययोग से ही शत्रु और मित्र उत्पन्न होते रहते हैं। ‘शत्रु करूणाजनक वचन बोल रहा हो तो भी उसे मारे बिना न छोड़े । जिसने पहले अपना अपकार किया हो, उसको अवश्य मार डाले और उसमें दु:ख न माने। ‘ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाला राजा दोषदृष्टि का परित्याग करके सदा लोगों को अपने पक्ष में मिलाये रखने तथा दूसरों पर अनुग्रह करने के लिये यत्नशील बना रहे और शत्रुओं का दमन भी प्रयत्नपूर्वक करे। ‘प्रहार करने के लिये उद्यत होकर भी प्रिय वचन बोले, प्रहार करने के पश्चात् भी प्रिय वाणी ही बोले, तलवार से शत्रु का मस्तक काटकर भी उसके लिये शोक करे और रोये। ‘ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले राजा को मधुर वचन बोलकर दूसरों को सम्मान करके और सहनशील होकर लोगों को अपने पास आने के लिये निमन्त्रित करना चाहिये, यही लोक की आराधना अथवा साधारण जनता का सम्मान है। इसे अवश्य करना चाहिये। ‘सूखा वैर न करे तथा दोनों बांहों से तैरकर नदी के पार न जाये। यह निरर्थक और आयुनाशक कर्म है। यह कुत्तें के द्वारा गाय का सींग चबाने-जैसा कार्य है, जिससे उसके दांत भी रगड़ उठते हैं और रस भी नहीं मिलता है। धर्म, अर्थ और काम-इन त्रिविध पुरूषार्थों के सेवन में लोभ, मूर्खता और दूर्बलता-यह तीन प्रकार की बाधा-अड़चन उपस्थित होती है। उसी प्रकार उनके शान्ति, सर्वहितकारी कर्म और उपभोग-ये तीन ही प्रकार के फल होते हैं। इन (तीनों प्रकार के) फलों को शुभ जानना चाहिये; परंतु (उक्त तीनों प्रकार की) बाधाओं से यत्नपूर्वक बचना चाहिये। ‘ॠण, अग्नि और शत्रु में से कुछ बाकी रह जाय तो वह बारंबार बढ़ता रहता है; इसलिये इनमें से किसी को शेष नहीं छोड़ना चाहिये।‘यदि बढ़ता हुआ ॠण रह जाय, तिरस्कृत शत्रु जीवित रहें और उपेक्षित रोग शेष रह जाए तो ये सब तीव्र भय उत्पन्न करते हैं । ‘किसी कार्य को अच्छी तरह सम्पन्न किये बिना न छोडे़ और सदा सावधान रहे। शरीर में गडा़ हुआ कांटा भी यदि पूर्णरूप से निकाल न दिया जाय-उसका कुछ भाग शरीर में ही टूटकर रह जाय तो वह चिरकाल तक विकार उत्पन्न करता है। ‘मनुष्यों का वध करके, सड़कें तोड़–फोड़कर और घरों को नष्ट–भ्रष्ट करके शत्रु के राष्ट्र का विध्वंस करना चाहिये ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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