एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 37-51 का हिन्दी अनुवाद
राजन्! इतने ही में उन्होनें देखा कि चाण्डाल के घर में तुरंत के शस्त्र द्वारा मारे हुए कुत्ते की जांघ के मांस का एक बड़ा–सा टुकड़ा पड़ा है। तब मुनि ने साचा कि ‘मुझे यहां से इस मांस की चोरी करनी चाहिये; क्योंकि इस समय मेरे लिये अपने प्राणों की रक्षा का दूसरा कोई उपाय नहीं है। ‘आपत्तिकाल में प्राण रक्षा के लिये ब्राह्मण को श्रेष्ठ , समान तथा हीन मनुष्य के घर से चारी कर लेना उचित है, यह शास्त्र का निश्चित विधान है। ‘पहले हीन पुरूष के घर से उसे भक्ष्य पदार्थ की चोरी करनी चाहिये। वहां काम न चले तो अपने समान व्यक्ति के घर से खाने की वस्तु लेनी चाहिये, यदि वहां भी अभीष्टसिद्धि न हो सके तो अपने से विशिष्ट धर्मात्मा पुरूष के यहां से वह खाघ वस्तु का अपहरण कर ले। ‘अत: इन चाण्डालों के घर से मैं यह कुत्ते की जांघ चुराये लेता हूं। किसी के यहां दान लेने से अधिक दोष मुझे इस चोरी में नहीं दिखायी देता है; अत: अवश्य ही इसका अपहरण करूंगा’। भरतनन्दन! ऐसा निश्चय करके महामुनि विश्वामित्र उसी स्थान पर सो गये, जहां चाण्डाल रहा करते थे। जब प्रगाढ़ अंधकार से युक्त आधी रात हो गयी और चाण्डाल के घर के सभी लोग सो गये, तब भगवान् विश्वामित्र धीरे से उठकर उस चाण्डाल की कुटिया में घुस गये। वह चाण्डाल सोया हुआ जान पड़ता था। उसकी आंखें कीचड़ से बंद–सी हो गयी थीं; परंतु वह जागता था । वह देखने में बड़ा भयानकथा । स्वभाव का रूखा भी प्रतीत होता था। मुनि को आया देख वह फटे हुए स्वर में बोल उठा। चाण्डाल ने कहा – अरे! चाण्डालों के घरोंमें तो सब लोग सो गये हैं, फिर कौन यहां आकर कुत्ते की जांघ लेने की चेष्टा कर रहा है? मैं जागता हूं, सोया नहीं हूं। मैं देखता हूं, तू मारा गया। उस क्रूर स्वभाव वाले चाण्डाल ने जब ऐसी बात कही, तब विश्वामित्र उससे डर गये। उनके मुख पर लज्जा घिर आयी। वे उस नीच कर्म से उद्विग्न हो सहसा बोल उठे-‘आयुष्मन्! मैं विश्वामित्र हूं। भूख से पीड़ित होकर यहां आया हूं। उत्तम बुद्धिवाले चाण्डाल! यदि तू ठीक–ठीक देखता और समझता है तो मेरा वध न कर’। पवित्र अन्त: करण वाले उस महिष का वह वचन सुनकर चाण्डाल घबराकर अपनी शय्या से उठा और उनके पास चला गया। उसने बड़े आदर के साथ हाथ जोड़कर नेत्रों से आंसू बहाते हुए वहां विश्वामित्र से कहा- ‘ब्रह्मन्! इस रात के समय आपकी यह कैसी चेष्टा है ? - आप क्या करना चाहते हैं?’ विश्वामित्र ने चाण्डाल को सान्त्वना देते हुए कहा- ‘भाई! मैं बहुत भूखा हूं। मेरे प्राण जा रहे हैं; अत: मैं यह कुत्ते की जांघ ले जाऊंगा। ‘भूख के मारे यह पापकर्म करने पर उतर आया हूं। भोजन की इच्छा वाले भूखे मनुष्य को कुछ भी करने में लज्जा नहीं आती। भूख ही मुझे कलंकित कर रही है, अत: मैं यह कुत्ते की जोघ ले जाऊंगा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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